भारत में बढ़ रहे हैं ‘कोलोरेक्टल’ कैंसर के मामले, विशेषज्ञों ने एहतियाती जांच कराने पर दिया जोर
नई दिल्ली। देश में बड़ी आंत के कैंसर के मामले बढ़ रहे हैं, हालांकि इससे होने वाली मौत की दर में कमी आने के बीच विशेषज्ञों ने खासतौर पर 45 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को एहतियाती जांच कराने और स्वास्थ्यकर जीवनशैली अपनाने पर जोर दिया है। बड़ी आंत के इस कैंसर को ‘कोलोरेक्टल’ कैंसर कहा जाता है। इस शब्दावली का इस्तेमाल मलाशय और मलद्वार कैंसर के लिए किया जाता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, आमतौर पर यह माना जाता है कि कैंसर के पारिवारिक इतिहास वाले व्यक्ति को इस रोग का मुकाबला करने में मुश्किल होती है, लेकिन इस रोग की वजह अक्सर जीवनशैली से जुड़ी चीजें होती है।यहां तक कि वंशानुगत मामलों में एहतियात एवं शुरूआती स्तर में ही इसका (कैंसर का) पता चल जाना नतीजे बेहतर कर सकता है।
‘गैस्ट्रो-इंटेस्टिनल, हेपेटो-पैंक्रिटीक-बाइलरी और कोलोरेक्टरल’ सर्जन डॉ विवेक मंगला ने कहा, ‘‘कैंसर कई कारणों से होता है। इसमें जीन की भूमिका होती है, लेकिन केवल 1-2 प्रतिशत मामले आनुवंशिक होते हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘जैसा कि कहा जाता है, रोग की रोकथाम उसके उपचार से बेहतर है। यह सलाह दी जाती है कि यदि कोलोरेक्टल कैंसर का एक पारिवारिक इतिहास है तो एहतियातन इसकी जांच कराई जाए। 45 वर्ष से अधिक उम्र के किसी भी व्यक्ति को इसकी जांच करानी चाहिए।’’
चिकित्सकों के मुताबिक, उत्तकों की असमान्य वृद्धि और कोलोरेक्टल कैंसर का एक साझा लक्षण व्यक्ति के शौच के लिए जाने की संख्या में बदलाव आना है। डॉ मंगला ने कहा कि कोलोरेक्टल कैंसर से पीड़ित होने का पता चलने के बाद किसी को ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि प्रथम और द्वितीय चरण के कोलोरेक्टल कैंसर के 90 प्रतिशत से अधिक मामलों में मरीज ठीक हो सकते हैं, जबकि तृतीय चरण में 70-75 प्रतिशत मामले में मरीज ठीक हो सकते हैं।
चिकित्सक ने कहा कि रोग के चौथे चरण में गंभीर स्थिति का रूप धारण कर लेने के बावजूद करीब 40 प्रतिशत मरीज ठीक हो सकते हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली में सर्जिकल ओंकोलॉजी विभाग के प्रोफसर, डॉ एम डी रे ने कहा कि अध्ययनों से यह पता चलता है कि त्रुटिपूर्ण जीवनशैली और खानपान की गलत आदतें यहां तक कि युवाओं में भी कैंसर के इस रूप को सामान्य बना रही हैं।
उन्होंने कहा कि इस रोग से पीड़ित होने वालों की संख्या पिछले पांच वर्षों में दोगुनी हो गई है। पहले, एक लाख में 2-3 लोग इससे पीड़ित पाये जाते थे, जबकि अब यह आंकड़ा एक लाख में चार हो गया है।
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