Holi Special : तब गली-गली में घूमते थे होरियार…

मुरादाबाद/अमृत विचार। वक्त के साथ होली का पर्व मनाने का तरीका काफी बदल गया है। आज के दौर में रंगों के इस त्योहार में होने वाला हुड़दंग कई बार हमारी कानून व्यवस्था के लिए खतरा बन जाता है। जबकि एक दौर था कि यह त्योहार एक तरह से गंगा-जमुनी तहजीब के लिए नजीर बनता था। …
मुरादाबाद/अमृत विचार। वक्त के साथ होली का पर्व मनाने का तरीका काफी बदल गया है। आज के दौर में रंगों के इस त्योहार में होने वाला हुड़दंग कई बार हमारी कानून व्यवस्था के लिए खतरा बन जाता है। जबकि एक दौर था कि यह त्योहार एक तरह से गंगा-जमुनी तहजीब के लिए नजीर बनता था। उस वक्त भी होलियार हुड़दंग करते थे, लेकिन उनका तरीका लोगों को गुदगुदाता था। कोई चप्पलों की माला पहनकर महामूर्ख बनकर घूमता था तो किसी को पेटूराम के नाम से पुकारा जाता था। वक्त बदला और तरीका बदला, लेकिन महानगर में एक ऐसा मोहल्ला है जो आज भी अपनी परंपराओं को निभा रहा है। कटघर क्षेत्र के होलियार पुरानी परंपरा के तहत ढोल-नगाड़ों के साथ जुलूस निकालते हैं और बिना किसी भेदभाव के रंग-गुलाल लगाकर एक-दूसरे को बधाई देते हैं।
पहले के दौर में होली पर सामाज के लोगों को एकजुट करने के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। जिसमें शहर के डॉक्टर, शिक्षाविद, अधिवक्ता और राजनैतिक लोग हिस्सा लेते थे। इसमें सास्कृतिक कार्यक्रम से लेकर कवियों की रचनाओं की बयार फिजा में घुल जाती थी। उस समय शहर के भद्रलोगों को उनके अचरणों के अनुसार उपाधियां भी दी जाती थीं। इसमें किसी को महामूर्ख तो किसी को पेटूराम का तमगा मिला करता था। जबकि समय के साथ सब कुछ बदल गया।
शहर के कवि अजय अनुपम बताते हैं कि बात 70 के दशक की है। जब वह मात्र 15 वर्ष के हुआ करते थे। उस दौर में रस्तोगी इंटर और महाराजा अग्रसेन कॉलेज में होली महोत्सव कराया जाता था। उसमें शहर के सभी प्रतिष्ठित लोग शामिल होते थे। भद्रलोगों को महामूर्ख की उपाधि दी जाती थी। वहीं जो सबसे अधिक बाजार में खाते हुए पाया जाता था। उसे पेटूराम का दर्जा मिलता था। उन्होंने बताया कि रंग वाले दिन गर्वमेंट कॉलेज पर सभी होलियारे एकत्र होते थे। उसके बाद पूरे शहर में ढोल-नगाड़ों के साथ चौपाई निकलती थी, लेकिन शहर का कटघर आज भी परंपराओं को सहेजे हुए है। यहां हर साल छोटी होली वाले दिन टोलियां बनाकर राम ढोल का जुलूस निकाला जाता है।
बरगुली और जूतों की माला पहन घूमते थे
पहले होली के पर्व का माहौल भी निराला था। कोई बरगुलियों तो कोई जूतों की माला पहन गधे पर बैठकर गलियों में घूमा करता था। उसे होली के दिन का महामूर्ख कहा जाता था। इस बीच ढोल-नगाड़ों की थाप पर नाचते-गाते थे, लेकिन अब बदलते वक्त के साथ सब लुप्त हो गया है। उस वक्त हर किसी को इसमें शामिल होने का उत्साह रहता था। वहीं आलू पर गालियां गोदकर लोगों के कपड़ों पर ठप्पा लगा दिया जाता था। साथ ही अपूर्णा मंदिर के पुजारी केसर के फूलों से रंग बनाकर लोगों के घर-घर जाकर छिड़कते थे।
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