Pitru Paksha 2024: विष्णु के वराह अवतार से माना गया है श्राद्ध प्रथा का संस्थापन
प्रयागराज। पितरों की आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक पिंडदान और तर्पण को श्राद्ध कहा जाता है। श्राद्ध की परंपरा कब और कैसे शुरू हुई, इसकी मान्यताओं को लेकर तमाम मतभेद हैं। वैदिक ग्रंथों में “ श्राद्ध” शब्द का उल्लेख नहीं मिलता लेकिन एक शब्द “पितृयज्ञ” को विस्तार मिला जिसे आगे चलकर पितरों से जोड़ा गया जिसे श्राद्ध कहा जाने लगा।
श्राद्ध परंपरा का कोई तथ्यात्मक प्रमाण नहीं मिलता है। इसकी मान्यताओं को लेकर तमाम मतभेद है। वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण और अन्य धार्मिक ग्रंथों में इसके बारे में अलग- अलग वर्णन मिलता है। पितृ पक्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से शुरू होकर सर्वपितृ अमावस्या तक चलता है। ऋग्वेद में पितृ-यज्ञ का उल्लेख मिलता है और विभिन्न देवी देवताओं को संबोधित वैदिक ऋचाओं में अनेक पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाई गई हैं।
ऋग्वेद के दसवें मंडल में एक पितृ सूक्त है जिससे पितरों का आह्वान किया जाता है वे पूजकों (वंशजों) को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें। अत्यंत तर्कशील एवं संभव अनुमान यह निकाला जा सकता है कि पितरों से संबंधित कार्य के विशिष्ट नाम की आवश्यकता प्राचीन काल में नहीं समझी गयी। जब पितरों के सम्मान में किए गए संख्या में अधिकता हुई तब श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति हुई।
संस्कृत से विद्यावारिधि (पीएचडी) करने वाले व्याकरणाचार्य डा गायत्री प्रसाद पाण्डेय ने बताया कि वाल्मिकि रामायण और रामचरित मानस के अनुसार त्रेता युग में श्रीराम ने और द्वापर में महाभारत के अनुशासन पर्व की एक कथा के अनुसार अत्रि मुनि का श्राद्ध के बारे में चर्चा मिलती है। उसके बाद श्राद्ध परंपरा शुरू हुई। यह परंपरा प्राचीनकाल से चली आ रही है लेकिन “विष्णुधर्मोत्तर पुराण” कुछ अलग ही बताता है जिसकी तुलना सार्थक और अन्य से भिन्न है।
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