तुलसीदास का नजरिया: हमारे अन्दर नहीं बचा है किसी तरह का आत्मसम्मान और आत्मबोध

यह जनश्रुति है तुलसीदास कभी मथुरा आए थे और मथुरा के किसी प्रसिद्ध मंदिर में दर्शन करने गए, वहां श्रीकृष्ण का बड़ा सुंदर श्रृंगार किया गया था, तुलसीदास उस मूर्ति को देखकर विमुग्ध हो गए। वे श्रीकृष्ण के आनंद में डूब गए, लेकिन भगवान के सामने सिर नहीं नवाया। वहीं पर उन्होंने गद्गद् कंठ से …
यह जनश्रुति है तुलसीदास कभी मथुरा आए थे और मथुरा के किसी प्रसिद्ध मंदिर में दर्शन करने गए, वहां श्रीकृष्ण का बड़ा सुंदर श्रृंगार किया गया था, तुलसीदास उस मूर्ति को देखकर विमुग्ध हो गए। वे श्रीकृष्ण के आनंद में डूब गए, लेकिन भगवान के सामने सिर नहीं नवाया। वहीं पर उन्होंने गद्गद् कंठ से कहा कि कहौं छबि आज की भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवै धनुखबान लो हाथ।। तुलसी की यह प्रार्थना भगवान ने सुन ली, और बात ही बात में मुरलीधर धनुर्धर बन गए, लिखा ‘ मुरली मुकुट दुराय के नाथ भए रघुनाथ। लखि अनन्यता भक्ति की जन को कियो सुनाथ।।’ मनोकामना पूर्ण होने पर गोस्वामी तुलसीदास की आंखें खुलीं और उनको मधुर ध्वनि सुनाई दी, उन्होंने लिखा कि तुलसी मथुरा राम हैं जो करि जाने दोय। दो आखर के बीच जो वाके मुख मैं सोय।।’
इसमें श्रीकृष्ण का प्रसंग तो महत्वपूर्ण है ही, उससे अधिक महत्वपूर्ण है मथुरा का नाम और उसका अर्थ। मथुरा के प्रसंग में यह पद फिर से पढ़ें, ‘ तुलसी मथुरा राम हैं जो करि जाने दोय। दो आखर के बीच जो वाके मुख मैं सोय।।’ मथुरा के दो अक्षर म और रा के बीच में थु है। सवाल यह है थु का अर्थ क्या है। अयोध्या सिंह ‘हरिऔध’ ने इस थु का अर्थ खोजा है और उसे द्वैत बुद्धि कहा है। लिखा है ‘ थू’ असल में द्वैत बुद्धि का प्रतीक है। द्वैतबुद्धि मूलतः सनातनी बुद्धि है, इसमें अपने-पराए का भाव है, यह विचारधारा के नजरिए से बंद गली है। सनातनी माने बंद गली के निवासी।
मथुरा को धार्मिक शहर बनाने की जो कोशिशें होती रही हैं यह उसकी मूल प्रकृति के विपरीत है, मथुरा प्राचीन-मध्यकाल में कृषि प्रधान शहर था, गऊ पालन का बड़ा केन्द्र था, इसका कृषि अर्थ व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। उसकी मूल पहचान धर्म नहीं ,कृषि है।
संयोग की बात है कि यहां श्रीकृष्ण का जन्म हुआ,यहां अनेक मंदिर हैं, यहां बौद्ध,जैन,आर्यसमाज आदि सभी धर्मों के मानने वाले आए और गए,लेकिन इस शहर को धार्मिक शहर किसी ने नहीं माना।
मथुरा की समूची अर्थव्यवस्था कृषि और गऊ पालन पर आज भी केन्द्रित है,देश का प्रसिद्ध तेल शोधक कारखाना भी यहां पर है, व्यवसासियों में कपड़े, चांदी, होटल, मिठाई उद्योग और मंदिर उद्योग की केन्रीय भूमिका है। इस शहर में अनेक ऐतिहासिक महत्व के मंदिर हैं, पुरातात्विक सामग्री और मध्यकालीन-प्राचीन इतिहास के पुरावशेषों का विशाल खजाना यहां की जमीन से निकला है उस सबको देखकर यह नहीं लगता कि यह धार्मिक शहर है, बल्कि यह कहना सही होगा मथुरा ऐतिहासिक शहर है, हमारे यहां ऐतिहासिक शहर और धार्मिक शहर का अंतर अभीतक न तो सरकार जानती है और न बुद्धिजीवी ही जानते हैं।
प्राचीन और मध्यकालीन लेखकों के यहाँ इस शहर और ब्रजभाषा के जो भी विवरण या उल्लेख मिलते हैं वे ऐतिहासिक शहरी सभ्यता के होने की पुष्टि करते हैं। इस शहर के पुराने नाम हैं शूरसेन नगरी,मधुरा,मधुपुरी,मधु नगरी,उत्तर मथुरा, माहुरा, मेथोरा, सौरीपुर,सौर्यपुर आदि। इन तरह के नामकरण में प्रधान तत्व धर्म कभी नहीं रहा। इसलिए मथुरा को धार्मिक शहर कहना सही नहीं होगा।शक-कुषाणों के काल में इसका मथुरा नाम स्थिर हो गया। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हमें अपने शहरों और अंचलों को धार्मिक अंचल बनाने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए।
क्योंकि इस प्रवृत्ति के पीछे धार्मिक तत्ववाद काम करता रहा है। यह सच है मथुरा की आय का एक बड़ा स्रोत पर्यटन है,लेकिन मंदिरों को होने वाली आमदनी का मथुरा के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास से सीधे कोई संबंध नहीं है। मंदिरों को सालाना करोड़ों रूपये की आमदनी होती है जो इन मंदिरों के मालिकों के जेब में जाती है। इस आमदनी का विकासमूलक कार्यों में कोई इस्तेमाल नहीं होता,इसने इन मंदिरों के पास संपत्ति को तो एकत्रित कर दिया है लेकिन उसके सामाजिक फलितार्थ नजर नहीं आते।
मथुरा की सामान्य खूबी है कि यहां पर एक जमाने में आर्यसमाज के समाज-सुधारक दयानन्द सरस्वती का भी काफी हल्ला रहा लेकिन सनातनियों ने उनके विचारों को यहां फलने-फूलने नहीं दिया। कहने के लिए यहां वैष्णव सम्प्रदाय के मंदिर बहुतायत में हैं लेकिन सामान्य जीवन में वैष्णव सम्प्रदाय के उदार जीवन मूल्यों का अभाव है।इस शहर और आसपास के समूचे जिले में सनातनी जीवन मूल्यों का समाज में वर्चस्व है। मसलन्, जातिभेद, छूआछूत, सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वास, पुनर्जन्म,कर्मकांड आदि का गहरा असर है।
यह सच है मथुरा में विभिन्न विचारधारा के शासकों का शासन रहा,इनमें अधिकतर गैर-वैष्णव थे। एक अन्य चीज वह यह कि चूंकि इस जिले की प्रकृति कृषि प्रधान है अतः उसके कारण समाज में मूल्य-परिवर्तन के स्तर पर गतिशीलता का अभाव है। पुराने सामंती मूल्य,सामंती संबोधन, हे,अवे,तवे,गाली आदि का खुलकर और सम्मान के साथ प्रयोग अधिकांश जनता के बीच होता है। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया ने आम जनता के बहुत बड़े हिस्से को अभी तक स्पर्श नहीं किया है।गाली यहां की सामंती सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न हिस्सा है, रास्ते में, आमफहम लहजे में, अनौपचारिक आत्मीय संवादों में गालियों का यहां धडल्ले से इस्तेमाल होता है।
गालियों को यहां भाषा का भगवान कहना समीचीन होगा। आमभाषा में गालियों का इस कदर प्रयोग अन्यत्र दूसरे शहरों में नहीं मिलता, यहां पर पिता-पुत्र, मां-बेटी,भाई-बहन आदि एक –दूसरे को सहजभाव से गालियां देकर ही सम्बोधित करते हैं। गालियां आज भी सामान्य कम्युनिकेशन की भाषा में जगह बनाए हुए हैं, संभवतः सनातनियों का ही असर है कि गालियां अभी तक मथुरा के जन-जीवन से गायब नहीं हो पाई हैं। सनातनी व्यक्ति की केन्री,नय विशेषता है जड़ता,वह आसानी से पुराने मूल्यों से पीछा नहीं छुड़ाता।पुराने मूल्यों का वह आजन्म पालन करता है।
सनातनियों के असर का एक सामाजिक आयाम है,वहीं उसका राजनीतिक आयाम भी है, सनातियों के विचारों से कठमुल्ले और साम्प्रदायिक नजरिए का गहरा मेलभाव है,यही वजह है कि मथुरा जिले में साम्प्रदायिक,तत्ववादी और धार्मिक संगठनों का गहरा असर है। चूंकि विगत 40 सालों में सनातनियों के मूल्यबोध का गांवों में भी विस्तार हुआ है फलतः जाति,उपजाति,गोत्र आदि की बीमारियां तेजी से फैली हैं। जिन लोगों को हिंदी क्षेत्र को बदलना है उनको सनातनियों के मूल्यबोध और सामाजिक नजरिए के खिलाफ संघर्ष करना होगा।
सनातनी मूल्यों को चुनौती दिए बिना किसी भी किस्म के समाज सुधार की इस इलाके में संभावनाएं नहीं हैं।मात्र पूंजीवादी विकास या उपभोक्तावाद के विकास से सनातनी मूल्यबोध धराशायी होने वाले नहीं हैं।उल्लेखनीय है आज से 60-65 साल पहले जाटों में समाज सुधार का असर था, वे आर्य समाज के असर में थे लेकिन विगत साठ सालों में नए सिरे से सनातनी मूल्यबोध का प्रचार-प्रसार हुआ है।यही वजह है पश्चिमी यूपी और हरियाणा में बड़े पैमाने पर ऑनरकिलिंग और जाति,गोत्र के मसले बढ़े हैं, औरतों पर हमले बढ़े हैं। सनातनी मूल्य व्यवस्था मूलतः स्त्री विरोधी और जातिगत और असमानता पर आधारित है।यह साराप्रपंच ईश्वर की आड़ में चलता रहा है। नए मानवीय मूल्यों के विकास में इससे बड़ी बाधाएं उपस्थित होती हैं।
हमारे समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो आए दिन बेसुध अवस्था में तुलसीदास के खिलाफ अंटशंट बकते हैं,फेसबुक पर तो मोदीभक्तों ने अंटशंट बकने में स्वर्णपदक प्राप्त किया है। इनमें अनेक तुलसी के ढोंगीभक्त भी हैं। तुलसी के ढोंगीभक्त वे हैं जो तुलसी का नाम लेते हैं लेकिन आचरण उनके विचारों के विरुद्ध करते हैं। इनमें सबसे खराब आचरण वह है जिसे बेसुध अवस्था में अंटशंट कहने या लंबी हाँकना कहते हैं। ये वे लोग हैं जिनका ज्ञानक्षेत्र बंद है। तुलसी को सचेत कवि और सचेत पाठक पसंद हैं,उनको ऐसे भक्त पसंद हैं जिनके ज्ञान नेत्र खुल चुके हैं।
उन्होंने लिखा है-
सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना।
ग्यान नयन निरखत मन माना।।
रामचरित मानस कालजयी रचना है आप इसकी जितनी आलोचना करें,इससे उसका दर्जा घटने वाला नहीं है। कालजयी रचनाएं राष्ट्र की लाइफ लाइन से जुड़ी होती हैं ।
भारत में विगत 65सालों में किसी भी जाति के लेखक को महान रचना करने से नहीं रोका गया,लेकिन रामचरित मानस जैसी लोकप्रिय एक भी कृति आधुनिक भारत के लेखक क्यों नहीं रच पाए ,किसने रोका है तुलसी से महान रचना लिखने से ? आधुनिक काल में लेखक के पास जितनी सुविधाएं हैं,वैसी तुलसी युग में नहीं थीं।
रामचरित मानस धार्मिक ग्रंथ नहीं है और नहीं यह जाति विशेष के लिए लिखा गया ग्रंथ है, यह महाकाव्य है और हमें महाकाव्य को पढ़ने-पढ़ाने का शास्त्र या आलोचना विकसित करनी चाहिए। हमारे बहुत सारे मित्र तुलसी को दलित या स्त्री के नजरिए से देखकर तरह -तरह के जाति और लिंगगत विद्वेष के रुपों को खोज लाते हैं।ये सभी लोग महाकाव्य को देखने की साहित्यचेतना अभी तक विकसित नहीं कर पाए हैं। महाकाव्य कभी कॉमनसेंस चेतना से समझ में नहीं आ सकता। महाकाव्य ,साहित्य की श्रेष्ठतम चेतना है। उसके लिए विकसित साहित्यबोध का होना जरुरी है।
तुलसी युग में दलित कवि सबसे लोकप्रिय कवियों थे, वे आज भी जनप्रिय हैं, सवाल यह है मध्यकालीन दलित कवियों की तरह आज के दलित लेखक आम जनता में व्यापक स्तर पर लोकप्रिय क्यों नहीं हैं ? जबकि मध्यकालीन दलित कवियों से उनकी स्थिति बेहतर है।
तुलसी का औरतों के प्रति आधुनिक नजरिया था। तुलसी की स्त्रियाँ किसी का आशीर्वाद नहीं चाहतीं, बल्कि आशीर्वाद देती हैं। लोग राम के पैरों पड़ते हैं,उनसे भक्ति का वरदान माँगते हैं,तुलसी के यहाँ स्त्रियाँ सीता के पैर तो पड़ती हैं लेकिन उल्टा उनको आशीष देती हैं।लिखा है-
अति सप्रेम सिय पायँ परि,बहुत विधि देहिं असीस।
सदा सोहागिनि होहु तुम,जब लगि महि अहि सीस।।
लोक कविता की विशेषता है कि उसमें अतिशयोक्ति का खूब प्रयोग होता है।इसी तरह पढ़ना कला है ,उसके अनेक नए-पुराने नियम हैं। मात्र शब्दज्ञान से साहित्य समझ में आ जाता तो साहित्य का शास्त्र या आलोचना विकसित करने की जरुरत ही नहीं पड़ती।सामान्य रुप में किसी कृति को पढ़ना और साहित्यिक प्रणाली के जरिए पढ़ने में जमीन-आसमान का अंतर है।
तुलसी के नजरिए की धुरी है दीनों की सेवा और सबसे बड़ा पाप है उनका उत्पीड़न।लिखा है- “परहित सरिस धर्म नहिं भाई।परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।” फेसबुक से लेकर राजनीति तक चिह्नित करें उनलोगों को जो पीड़ा और पीड़ितों के पक्ष में लिखते हैं और रेखांकित करें कि वे किस ओर हैं।
मुगल बादशाहों के जमाने में कोल-किरातों का आखेट होता था,जो पकड़े जाते थे वे काबुल के बाजार में गुलाम के रुप में बेच दिए जाते थे,ब्रिटिशराज में इन लोगों को जरायमपेशा करार दे दिया गया, यह संदर्भ ध्यान में रखें और फिर तुलसी के यहां कोल-किरातों के प्रति व्यक्त नजरिए को समझने की कोशिश करें। तुलसी ने बीस पंक्तियों में कोल-किरातों की भेंट पर जो लिखा है वह बहुत ही मूल्यवान है।
कोल आदि को याद करते हुए लिखा “यह सुधि कोल किरातन्ह पाई।हरषे जनु नवनिधि घर आई”,
अंत में तुलसी की टिप्पणी पढ़ें- “रामहिं केवल राम पियारा।जानि लेउ जो जाननिहारा।।”
पुरोहितों ने जो व्यवहार एससी-एसटी के साथ किया वही औरतों के साथ किया। इन सबको शिक्षा और उपासना से वंचित किया। तुलसी ने अपनी रचना में औरतों के लिए उपासना के द्वार खोल दिए। राम से मिलने,उनका सत्कार करने,उनका स्नेह पाने में औरतें सबसे आगे हैं। तुलसी ने जितनी आत्मीयता ग्रामीण औरतों और सीता के चित्रण में दिखाई है वैसी आत्मीयता अन्यत्र दुर्लभ है।
ग्रामीण स्त्रियां ही पूछ सकती हैं-
कोटि मनोज लजावन हारे।
सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।।
और सीता ही उनके प्रश्न का उत्तर दे सकती थीं-
बहुरि बदन बिधु अंचल ढाँकी ।
पियतन चितै भौंह करि बाँकी।।
खंजन मंजु तिरीछे नैननि ।
निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सैननि।।
तुलसी से हम क्या सीखें, यह आज भी सबसे जटिल सवाल है। तुलसी के नजरिए की विशेषता है संसार के असत्य का उद्घाटन। हम तुलसी के मार्ग पर चलना चाहते हैं तो मौजूदा संसार के असत्य का निरंतर उद्घाटन करें। असत्य को छिपाना तुलसीभक्ति या तुलसीविवेक नहीं है।
तुलसी के नजरिए की दूसरी बड़ी विशेषता है दुख की चर्चा। दुख को उन्होंने भक्ति से जोड़कर पेश किया। वे अपने बारे में, अपने समाज और युग के बारे में सबसे ज्यादा क्रिटिकल हैं। हम सोचें कि क्या हम क्रिटिकल हैं ?
तुलसी की अन्य विशेषता है मनुष्य के आगे हाथ मत फैलाओ। हम सब हाथ फैलाने की बीमारी के बुरी तरह शिकार हो गए हैं हमारे अन्दर किसी तरह का आत्मसम्मान और आत्मबोध बचा ही नहीं है ।
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