जंग-ए-आजादी के वे स्थल जहां जाते ही रोंगटे थर्रा जाते हैं

जंग-ए-आजादी के वे स्थल जहां जाते ही रोंगटे थर्रा जाते हैं

कानपुर। आजादी की पहली लड़ाई नानाराव पेशवा के नेतृत्व में कानपुर से 1857 में शुरू हुई तो यह 1942 तक कुछ इस अंदाज में चलती रही कि इसके प्रमुख पड़ाव का उल्लेख न किया जाए तो कानपुर का जंग-ए- आजादी का इतिहास अधूरा रह जाएगा। क्रांति की पहली चिंगारी बिठूर स्थित नानाराव पेशवा महल से …

कानपुर। आजादी की पहली लड़ाई नानाराव पेशवा के नेतृत्व में कानपुर से 1857 में शुरू हुई तो यह 1942 तक कुछ इस अंदाज में चलती रही कि इसके प्रमुख पड़ाव का उल्लेख न किया जाए तो कानपुर का जंग-ए- आजादी का इतिहास अधूरा रह जाएगा। क्रांति की पहली चिंगारी बिठूर स्थित नानाराव पेशवा महल से फूटी जिसने विकराल रूप ले लिया। इसे स्वतंत्रता का पहला संग्राम कहा गया। लड़ाई के नायक नानाराव पेशवा की आवाज पर कानपुर व आसपास की रियासतें एकजुट हो गयी थी।

बिठूर में नानाराव पेशवा का महल आज भी खंडहर पड़ा हुआ है। उन्होंने अलग-अलग टुकड़ियां बनाकर अंग्रेजों के विरुद्ध सक्रिय कर दिया था। यहां के मल्लाहों ने भी नाना साहब का साथ दिया था। चार जून से 25 जून तक कानपुर का एक-एक इलाका अंग्रेजों के खिलाफ लामबंद हो गया था। नाना साहब के साथ तात्याटोपे, रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में अंग्रेजों की पिकेट में तैनात चार जून को विद्रोहियों ने संकेत दिया। क्रांतिकारियों ने नवाबगंज का खजाना लूट लिया और गोला बारूद भी ले गए।

आल सोल कैथेड्रल चर्च-इसे कानपुर मेमोरियल चर्च भी कहा जाता है। छावनी क्षेत्र स्थित इस चर्च को देखने जाने के लिए पब्लिक को इजाजत नहीं है। एक प्रभावशाली स्थापत्य कला का प्रतीक इस चर्च का निर्माण 1875 में किया गया था। आजादी के रणबांकुरों द्वारा मारे गए फिरंगियों की स्मृति में यह चर्च बनाया गया था।   चार जून 1857 से छिड़ी लड़ाई 24 जून तक चली जिसमें इतिहासकारों के अनुसार 400 अंग्रेज पुरुष, महिला और बच्चे मारे गए थे। चर्च के भीतर आज भी मृतकों की सूची के शिलापट लगे हैं।कानपुर मेमोरियल चर्च की यात्रा से भारत के संघर्ष की आजादी के रुग्ण सत्य के साथ दर्शकों का आमना-सामना होता है, एक ऐसी लड़ाई जिसके कारण दोनों पक्षों में भारी खून-खराबा हुआ।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मुंह की खाने के बाद अंग्रेजी सैनिक कोलकाता जाने के लिए तैयार हो गए। 27 जून 1857 को 40 नावें मंगवाई गईं। सत्तीचौरा (मैस्कर) घाट पर काफी संख्या में भीड़ एकत्रित हुई। अंग्रेजों की ओर से अचानक किसी ने फायङ्क्षरग कर दी। कुछ लोग घायल हुए, इससे भीड़ उग्र हो गई। काफी संख्या में अंग्रेज सैनिक मारे गए। क्रांतिकारियों ने जयघोष किया था।

बूढ़ा बरगद-नानाराव पार्क भी इतिहास का गवाह है। वह अपने वीर सपूतों की कुर्बानी पर खून के आंसू रोया था। यहीं पर बरगद के पेड़ से चार जून 1857 को 133 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। कई साल तक यह न भुलाने वाली यादों को संजोए रहा। कुछ साल पहले ही पेड़ जमींदोज हो गया।

बीबीघर-सत्तीचौरा की घटना के बाद क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सैनिकों की पत्नी और बच्चों को पकड़ लिया। नानाराव पेशवा ने उन्हें सुरक्षित जगह पर बीबीघर (नानाराव पार्क ) भेज दिया। यह एक अंग्रेज अफसर का बंगला था। बच्चों व महिलाओं की जिम्मेदारी हुसैनी खानम नाम की महिला को दी गई। इस बीच दोबारा से अंग्रेजी सेना कानपुर में प्रवेश कर गई। क्रांतिकारियों को मारना शुरू कर दिया। प्रतिशोध में अंग्रेजी महिलाओं व बच्चों की हत्या कर दी गई। उनके शव कुएं में ङ्क्षफकवाकर पाट दिया गया।

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