राजा और बणी-ठणी की अनूठी मोहब्बत में प्रजा ने देखी थी कृष्ण-मीरा की छवि…

राजा और बणी-ठणी की अनूठी मोहब्बत में प्रजा ने देखी थी कृष्ण-मीरा की छवि…

फ़ांस की मोनालिजा का दर्जा प्राप्त करने वाली राजस्थान की अपूर्व सुंदरी व कवयित्री बणी-ठणी के वृंदावन में लम्बे प्रवास की रोचक व रोमांचकारी जानकारी बहुत कम लोगों को है। 18वीं सदी में राजस्थान के किशनगढ़ के महाराजा सावंतसिंह और उनकी प्रेयसी बणी-ठणी दोनों ही कृष्ण भक्ति में लीन होकर वृन्दावन आकर बस गये थे …

फ़ांस की मोनालिजा का दर्जा प्राप्त करने वाली राजस्थान की अपूर्व सुंदरी व कवयित्री बणी-ठणी के वृंदावन में लम्बे प्रवास की रोचक व रोमांचकारी जानकारी बहुत कम लोगों को है। 18वीं सदी में राजस्थान के किशनगढ़ के महाराजा सावंतसिंह और उनकी प्रेयसी बणी-ठणी दोनों ही कृष्ण भक्ति में लीन होकर वृन्दावन आकर बस गये थे और अंतिम सांस तक इसी स्थान पर रहे। दोनों की समाधियां वृंदावन में आज भी मौजूद हैं। 5 मई 1973 को भारत सरकार ने बणी-ठणी पर डाक टिकिट जारी कर इतिहास में उसे अजर-अमर कर दिया।

राजस्थान के इतिहास के शाही दौर में राजसी ठाटबाट और मोहब्बत की अनेक दास्तानों में शामिल बणी-ठणी की प्रेम-कहानी नायाब है। किशनगढ़ रियासत के राजा सावंत सिंह (जन्म सन1699) ने अपनी प्रेयसी व निजदासी का चित्र अपने हाथों से अपने एक चित्रकार निहालचंद की मदद से बनाया था। इस चित्र में रहा ने अपने सपनों की सुन्दरी को रानियों जैसी पौशाक और आभूषण पहने हुए दिखाया है। केनवास पर उतारे गए इस चित्र को नाम दिया – बणी-ठणी।

राजस्थानी भाषा के शब्द बणी-ठणी का आशय सजी-संवरी और सजी-धजी से है। राजा के द्वारा बनाये चित्र की उस समय पूरे राज्य और राज घरानों में चर्चा और प्रसंशा हुई थी। उसके बाद से राजा की इस निज दासी का नाम बणी-ठणी पड़ गया और सभी लोग उसे सार्वजनिक रूप से उसे बणी-ठणी के नाम से ही पुकारने लगे। बणी-ठणी की सुंदरता का ये आलम था कि राज्य के चित्रकार भी अपनी चित्रकला के हर विषय में राजा की प्रिय दासी बणी-ठणी को ही हर जगह आदर्श मोडल के रूप में बनाने लगे।

देखते ही देखते राज्य में हर जगह बणी-ठणी के चित्रों के ढेर लग गए। आज लगभग ढाई सौ वर्ष बाद किशनगढ़ की चित्रशैली को बणी-ठणी के नाम से पूरे विश्व में जाना जाता है। बणी-ठणी की ये मूल पेंटिंग वर्तमान में ‘राष्ट्रीय संग्रहालय’ दिल्ली में सुरक्षित है।
राजा सावंत सिंह स्वयं ही कविता, कला एवं संगीत में पारंगत नहीं थे वरन बणी-ठणी भी एक कवियत्री होने के साथ कला और संगीत में भी निपुण थी।

राजा सावंतसिंह और उनकी ये गायिका दासी दोनों ही कृष्ण भक्त थे। राजा को अपनी ओर आसक्त देख दासी ने भी राजा को कृष्ण व स्वयं को मीरा मानते हुए राजा के आगे अपने आपको समर्पित कर दिया था । राजा और बणी-ठणी की अनूठी मोहब्बत को जानने वाली प्रजा ने भी उनके अंदर कृष्ण-मीरा की छवि देखना शुरू कर दिया और दोनों को अनेक अलंकरणों से नवाजा जाने लगा, जैसे राजा को नागरीदास, चितवन, चितेरे, अनुरागी, मतवाले आदि तो बणी-ठणी को कलावंती, नागर रमणी, उत्सव प्रिया, रसिक बिहारी, किशनगढ़ की राधा आदि।

कालान्तर में एक बार जब राजा बणी-ठणी के साथ दिल्ली प्रवास पर थे, उस वक्त इनके पिता की अचानक मृत्यु हो गई , ऐसे में राजा के छोटे भाई ने राज्य पर अधिकार कर लिया। राजा ने अपने भाई को युद्ध में परास्त कर राज्य वापस तो ले लिया लेकिन इस घटना से राजा का मन इतना दुःखी हुआ। उन्होंने अपने पुत्र व भाई को राज्य की बागडोर सौंप कर वैराग्य ले लिया।

राजा बणी-ठणी के साथ सन 1762 में वृन्दावन आ बसे। राजा सावंत सिंह के वृन्दावन आने से पहले ही कवि नाम उपनाम ‘नागरीदास’ प्रसिद्ध हो चुका था, राज्य और वैभव से विरक्ति के संदर्भ में नागरीदास का यह दोहा उनकी मनस्थिति को जग-जाहिर करता प्रतीत होता है –
”जहाँ कलह वहां सुख नहीं ,कलह सुखन को शूल ,सबै कलह एक राज में राज कलह को मूल।”
नागरीदास और बणी ठनी के वृन्दावन में आने की बात जबशहर में फैली तो लोग मिलने आने लगे। उन्होंने लिखा –
”सुनी व्यवहारिक नाम को ठाडे दूर उदास, दौड़ मिले भरी भुजन सुनी नाम नागरीदास।”

वृन्दावन में रहकर राजा और बणी-ठणी का पूरा समय चैतन्य गोस्वामी के षड-गोस्वामियों के बसाये देवालयों में जाकर पुष्प-सेवा, उत्सव, समाज गायन, साँझी कला अदि के साथ राधाकुण्ड में जाकर दानपुण्य करने में व्यतीत होता था जिसके लिए किशनगढ़ राज्य से उनके पास नियमित राशि आती थी।

एक बार किशनगढ़ से धनराशि आने में देरी हो गई तो उन्होंने व्यथित हृदय से अपने पुत्र को एक दोहारूपी संदेश लिखकर भेजा –’दांत गिरे और खुर घिसे पीठ बोझ नही लेत ,ऎसे बूढ़े बैल कौ कौन बांध खल देत। ‘पिता के मार्मिक संदेश को पढ़कर पुत्र की आँखे भर आईं और फिर जीवन भर कभी किशनगढ़ राज्य से राशि आने में देर नहीं हुई।

नागरीदास का देहावसान सन 1764 में हुआ। अपने जीवनकाल में उन्होंने 75 रचनाएँ की हैं। ये सभी कविताएँ ठाकुरजी के हिंडोला, साँझी, दीवाली, फाग आदि त्यौहारों और समस्त ऋतुओं में श्रीकृष्ण की लीलाओं से रची-पगी हैं। अपने प्रेमी नागरीदास की भांति बणी-ठणी का काव्य भी मधुर, हृदय स्पर्शी और कृष्ण-भक्ति अनुराग के सरोवर है।

‘रसिक बिहारी’ के नाम से लोकप्रिय हुईं बणी-ठणी की कविताओं पर ब्रज, पंजाबी और राजस्थानी भाषाओँ की झलक है। रसिक प्रिया ने श्रीकृष्ण और राधिका के जन्म, कुञ्ज बिहार, रास-क्रीड़ा, होली, साँझ, हिंडोला, पनघट आदि विविध लीला-प्रसंगों का अपने पदों में वर्णन किया है।

प्रसिध्द विव्दान डा ० शैलेन्द्र भट्ट ने बताया कि ” किशनगढ़ की बणी-ठणी चित्रशैली को प्रकाश में लाने का श्रेय अलीगढ़ विश्वविद्यालय और राजकीय कॉलेज लाहौर में अंग्रेजी के प्रोफेसर एरिक डिकिन्सन को जाता है। सन् १९४३ में जब प्रोफेसर एरिक डिकिन्सन मेयो कॉलेज, अजमेर के शैक्षणिक भ्रमण के लिए आये, तब उन्होंने किशनगढ़ राजघराने के कलाकृति के संग्रह में बणी-ठणी और अन्य पेंटिंग को

देखा था। ” वृंदावन में डा० शैलेन्द्र भट्ट चैतन्य महाप्रभु के षड गोस्वामी रघुनाथ गोस्वामी की विरासत ” भट्ट हवेली ” में स्थापित विग्रह मदन मोहन की सेवा में ५०० साल से लगे परिवार की १६ वीं पीढ़ी के प्रसिध्द आचार्य हैं।

-अशोक बंसल

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