आधुनिक भारत में 7 दिसंबर 1856 को हुआ था पहला विधवा विवाह, जानें इसके बाद सामज में क्या हुआ बदलाव

आधुनिक भारत में 7 दिसंबर 1856 को हुआ था पहला विधवा विवाह, जानें इसके बाद सामज में क्या हुआ बदलाव

ईश्वर चंद्र विद्यासागर की कोशिश के कारण ही 26 जुलाई 1856 को हिंदू विधवा पुर्नविवाह कानून 1856 बन सका। इसके बाद हिंदू विधवाओं की फिर से शादी को कानूनी जामा पहना दिया गया। ये कानून का मसौदा खुद लार्ड डलहौजी ने तैयार किया था तो इसे पास किया लार्ड कैनिंग ने। हालांकि इसके मार्ग में …

ईश्वर चंद्र विद्यासागर की कोशिश के कारण ही 26 जुलाई 1856 को हिंदू विधवा पुर्नविवाह कानून 1856 बन सका। इसके बाद हिंदू विधवाओं की फिर से शादी को कानूनी जामा पहना दिया गया। ये कानून का मसौदा खुद लार्ड डलहौजी ने तैयार किया था तो इसे पास किया लार्ड कैनिंग ने। हालांकि इसके मार्ग में बहुत सी बाधाएं आईं। इससे पहले जो बड़ा समाज सुधार कानून पास हुआ था, वो था सतीप्रथा का बंदीकरण।

10 साल की कालीमती कुछ समय पहले विधवा हुई थी। उसके साथ शादी करने वाले युवक श्रीचंद्र विद्यारत्न एक संस्कृत कॉलेज में टीचर थे और विद्यासागर के सहयोगी।

इस घटना को शिवनाथ शास्त्री ने लिखा, जो उस समय बच्चे थे लेकिन बाद में वो ब्रह्मसमाज के जाने माने नेता बने। उन्होंने इसे अखबारों में लिखा। हालांकि इस कानून के बनने के दो दशक पहले ही दक्षिणारंजन मुखोपाध्याय बर्दवान की रानी और राजा तेजचंद्र की विधवा वसंता कुमारी से शादी रचा चुके थे लेकिन उसे स्वीकार नहीं किया गया था, क्योंकि तब तक ऐसा कानून नहीं बना था। ये शादी इसलिए भी खास थी कि मुखोपाध्याय ब्राह्मण थे और उन्होंने अपनी जाति से परे जाकर भी शादी की थी।

तब इस शादी के गवाह कलकत्ता पुलिस मजिस्ट्रेट खुद बने थे। लेकिन इससे कलकत्ता और बंगाल में इतनी नाराजगी फैली कि नवदंपति को वहां से बाहर जाना पड़ा और लखनऊ में जाकर शरण लेनी पड़ी।

इससे पहले जब भी किसी अभिभावक ने अपनी छोटी विधवा बेटियों की फिर से शादी करने की कोशिश की। उन्हें इसका तगड़ा विरोध झेलना पड़ा। उस समय बंगाल में लड़कियों की शादी बहुत कम उम्र में 08-10 के बीच हो जाती थी। कई बार लड़कियों की शादी 60-70 साल के पुरुषों से होती थी। जो ज्यादा जी नहीं पाते थे। उनकी मृत्यु के बाद कम उम्र की इन विधवा लड़कियों की हालत बहुत दयनीय हो जाती थी। समाज आमतौर पर उनसे अमानवीय व्यवहार करता था।

ऐसे में विद्यासागर ने बीड़ा उठा लिया कि वो विधवाओं के पुनर्विवाह को कानूनी जामा पहनाकर रहेंगे। उन्होंने इसके लिए शास्त्रों का वृहद अध्ययन किया कि क्या प्राचीन काल में ऐसा हुआ है या हिंदू शास्त्रों में ऐसा कोई उल्लेख आय़ा है। उन्होंने संस्कृत कॉलेज में इन ग्रंथों को पढ़ने और मनवांछित बात तलाशने के लिए काफी समय लगाया। आखिरकार वो उन्हें मिल गया।

पाराशर संहिता में उन्हें वो मिला, जो वो तलाश रहे थे। यानि विधवाओं का विवाह शास्त्र सम्मत था। हालांकि इसका हिंदू समाज से भारी विरोध हुआ। लेकिन आखिरकार बिल पास हो ही गया। लेकिन कानून बन जाने के बाद भी विद्यासागर का काम खत्म नहीं हुआ था। उनका मानना था कि जब तक कि इस तरह की शादी शुरू नहीं हो जाती, तब तक ऐसे कानून बना लेने का कोई मतलब नहीं है।

वर पंडित श्रीचंद्र विद्यारत्न उनके मित्र के युवा बेटे थे. 24 परगना में रहते थे। जबकि वधू कलामती देवी एक बालिका विधवा थी, जो बर्दवान के पालासदंगा गांव की रहने वाली थी। शादी की तारीख पहले 27 नवंबर 1856 तय की गई लेकिन श्रीचंद्र सामाजिक भय के चलते पैर पीछे खींचने लगे थे। इस मामले में श्रीचंद्र की मां लक्ष्मीमणि देवी दृढ थीं कि उन्हें बेटे की शादी विधवा बालिका से ही करनी है। वो खुद विधवा थीं।

वर श्रीचंद्र के डर को काफी हद तक उनके दोस्तों ने भी दूर किया। खासकर विद्यासागर ने उन्हें बहुत संबल दिया। जब ये बात कलकत्ता और बंगाल में पता लगनी शुरू हुई तो इसका तीखा विरोध शुरू हो गया। तब राज कृष्ण बंदोपाध्याय सामने आए, जिन्होंने शादी का पूरा इंतजाम अपने घर में करने की घोषणा की। विद्यासागर ने वधू को खुद अपने हाथ से बुनी साड़ी और गहने उपहार में दिए और शादी के अन्य खर्चों का वहन भी खुद ही किया।

बाद में विद्यासागर ने कई और ऐसी शादियों में खुद खर्च का वहन किया। इसके चलते उन पर काफी कर्ज भी हो गया। पहली विधवा शादी होने के बाद बंगाल में हूगली और मिदिनापुर में ऐसी ही शादियां हुईं। हालांकि ये बहुत मुश्किल होता था। लेकिन धीरे धीरे इसने जोर पकड़ लिया।

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