बाराबंकी: उपले व कंडे महंगे, कैसे पकाए कच्चे दीपक...प्रजापति समाज छोड़ रहे हैं पुस्तैनी कार्य
विकास पाठक/बाराबंकी, अमृत विचार। दीवाली पर्व में महज कुछ दिन शेष हैं। हर व्यक्ति दीपावली की तैयारी में लगा है। पर्व में अहम किरदार निभाने वाले प्रजापति समाज (कुम्हार, कसगर) की हालत जनमानस के चायनीज झालरों की तरफ रूझान के चलते दयनीय हैं। मिट्टी के दीपक बनाने वाले कुम्हारों को कई चुनौतियों से गुजरना पड़ रहा है। कहीं अच्छी मिट्टी की समस्या तो कहीं उपलों की बढ़ती कीमतें कोढ़ में खाज पैदा कर रहीं हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि गावों में दीवाली के समय दीपक बेचने आने पर अनाज के बदले दीपक खरीदे जाते थे। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में नगदी की बजाय अनाज से दीप की खरीददारी होती है। लेकिन आधुनिक जमाने में समय की मार सबसे ज्यादा परंपरा निभाने वाले प्रजापति समाज पर पड़ी है।
जरौली निवासी कलीम जाफर रज्जब बताते हैं कि दिन भर कड़ी मेहनत के बाद लगभग पांच सौ दीपक ही बन पाते हैं। जिनसे बमुश्किल पांच सौ रूपये मिलते हैं। जिनमें करीब साठ प्रतिशत लागत के बाद दो सौ रूपये की आमदनी होती है। जिससे परिवार का गुजारा होना मुश्किल है। महंगाई का आलम यह है कि कच्चे दीपक पकाने वाले उपलों की कीमत आसमान छू रही है। मौजूदा समय में उपले सौ से दो सौ रूपये सैकड़ा व कण्डे तीन से चार सौ रूपये सैकड़ा मिलते हैं। मेरे यहां पुस्तैनी रोजगार रहा है, किंतु आधुनिकता की दौड़ ने हम अगली पुश्तों को अन्य रोजगारों की तरफ मोड़ रहे हैं।
शंकर गढ़ बबुरीगाव में करीब एक दर्जन से ज्यादा प्रजापति समाज के घरों में यह कार्य होता था, लेकिन अब कुछ बुजुर्ग ही परंपरा को जीवित रखे हैं। प्रजापति समाज की नई पीढ़ी अपने पुस्तैनी व परंपरागत रोजगार से मुंह मोड़कर दूसरे रोजगार में लगे हुए हैं। मस्तान आश्रम सूपामऊ में मोटरसाइकिल मैकेनिक नवयुवक उमेश प्रजापति बताते हैं कि पुस्तैनी कार्य में पेट पालना मुश्किल था, इसीलिए मैकेनिक का कार्य कर पेट पाल रहे हैं।
मिटटी के दीयों की कीमत
छोटी दीप--एक रूपये
मध्यम दीप व भुड़का--पांच रूपये
बड़ा दीपक परई के साथ-- दस रूपये
मिट्टी कलश-- बीस रूपये
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