प्रयागराज: मृत्युपूर्व कथन के आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराना उचित नहीं- इलाहाबाद हाईकोर्ट

प्रयागराज: मृत्युपूर्व कथन के आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराना उचित नहीं- इलाहाबाद हाईकोर्ट

प्रयागराज , अमृत विचार। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मृत्युपूर्व कथन के आधार पर दोषी ठहराए गए अभियुक्त को बरी करते हुए कहा कि मृतक की देहाती बोली के कारण उसके द्वारा बोले गए सटीक शब्द रिकॉर्ड नहीं किए गए। अतः रिकॉर्ड पर मुंशी द्वारा मूल कथन का अनुवादित पाठ प्रस्तुत किया गया। अभियोजन की ओर से इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया कि मुंशी को कोर्ट में क्यों नहीं प्रस्तुत किया गया जबकि वह मृतक के बयान का अनुवादक था। 

कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि मृतक के मृत्युपूर्व कथन को अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए एकमात्र साक्ष्य के रूप में नहीं लिया जा सकता है। यह आदेश न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी की खंडपीठ ने सिंटू और अन्य के खिलाफ दोषसिद्धि के आदेश को रद्द करते हुए पारित किया। 

वर्तमान अपील में अपीलकर्ताओं ने सत्र न्यायाधीश, भदोही, ज्ञानपुर के आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें अभियुक्तों को आईपीसी की धारा 34 और 304 के तहत 50 हजार रुपए जुर्माने के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। मामले के अनुसार मृतक 18 अक्टूबर 2017 को जल गई थी, जिसके कारण 2 दिन बाद यानी 20 अक्टूबर को उसकी मौत हो गई। मृतक के मृत्युपूर्व बयान के साथ-साथ अन्य साक्ष्यों पर भरोसा करते हुए अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया। 
मामले पर विचार करते हुए कोर्ट ने पाया कि मृत्युपूर्व बयान दर्ज करते समय मृतक की मानसिक अवस्था का प्रमाण पत्र प्रस्तुत नहीं किया गया, जिसे बाद में मजिस्ट्रेट ने भी स्वीकार किया कि मृतक के बयान दर्ज करने से पहले और बाद में प्रमाण पत्र प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। कोर्ट ने यह भी पाया कि बयानों के बारे में यह स्पष्ट नहीं किया गया कि वह मृतक द्वारा दिए गए थे या उनके द्वारा दिए गए संकेतों पर आधारित थे। 

अंत में कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि घटना के समय कोई भी प्रत्यक्षदर्शी मौजूद नहीं था, साथ ही मृतक के शरीर पर जलने के अलावा कोई अन्य चोट के निशान नहीं थे। इसके अलावा मृत्युपूर्व कथन को लिखने वाले से पूछताछ नहीं की गई। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि मृत्यु पूर्व कथन लिखने वाले व्यक्ति की गैर हाजिरी आरोपियों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। कोर्ट ने यह भी पाया की मृत्युपूर्व कथन परिवार के सदस्यों की उपस्थिति में दर्ज किया गया था, इसलिए इसे पूर्णतः स्वैच्छिक नहीं कहा जा सकता।

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