गम है न अब ख़ुशी है न उम्मीद है न यास, सब से नजात पाए ज़माने गुज़र गए... शहंशाह ए गजल खुमार बाराबंकवी की यौम ए पैदाइश पर विशेष

गम है न अब ख़ुशी है न उम्मीद है न यास, सब से नजात पाए ज़माने गुज़र गए... शहंशाह ए गजल खुमार बाराबंकवी की यौम ए पैदाइश पर विशेष

योगेश शर्मा/बाराबंकी, अमृत विचार। यही खुसूसियत थी शहंशाह ए गजल खुमार बाराबंकवी की कि वह महफिल का नहीं बल्कि महफिल उनका इंतजार करती और उनके आने के बाद महफिल उन्ही की होकर रह जाती थी। एक बार और फरमाएं, सुनने की उन्हे आदत पड़ चुकी थी, वास्तव में वह शायरी से भी ऊपर थे और गजल उनके अल्फाजों की मोहताज।

मिजाज के तो क्या कहने, किसी ने आदाब किया नहीं कि उसे एवज में ढेर सारी दुआएं हासिल हो जाती थीं। सादा लिबास और पान के शौकीन। विदेश तक मोर्चा संभाल आए, बाराबंकी देश का नाम रोशन कर आए, फिल्मों में उनके लिखे गीत गाए गए पर आज बाराबंकी वासी खासकर उर्दू अदब से जुड़े लोग सिर्फ जन्म और अंतिम दिन याद करते हैं। वास्तव में वह इससे भी ज्यादा इज्जत और मोहब्बत के हकदार थे।   

कल 15 सितंबर को जनाब खुमार बाराबंकवी की यौम ए पैदाइश का दिन है। शहर की मुख्य कर्बला में उन्हे दफन किया गया, वहीं पर समाधि बनी हुई है। फजर्लुरहमान पार्क से पहले उनका पुराना घर था जो अब पहचान खो चुका लेकिन उनके नाम की तख्ती आज भी लगी हुई है। आगे की पीढ़ी उनका नाम नहीं चला सकी लेकिन उर्दू अदब से जुड़े लोग ही उनके व्यक्तित्व को बखूबी जानते और समझते हैं।

खुमार साहब के बीते सुनहरे कल पर नजर डालें तो 15 सितम्बर 1919 को जन्मे खुमार बाराबंकवी का मूल नाम मोहम्मद हैदर खान था। बाराबंकी को अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाने वाले अजीम शायर खुमार बाराबंकवी को प्यार से बेहद करीबी लोग 'दुल्लन' भी बुलाते थे। उनके समय के लोग बताते हैं कि उन्होने शहर के सिटी इंटर कालेज से आठवीं तक शिक्षा ग्रहण की। इसके पश्चात वह राजकीय इंटर कालेज से कक्षा 10 की परीक्षा उत्तीर्ण की। हाईस्कूल पूरा कर लखनऊ के जुबली इंटर कालेज में दाखिला लिया पर उनका मन पढ़ाई में नहीं लगा।

वर्ष 1938 से ही वह मुशायरे में जाने लगे। उन्होने अपना पहला मुशायरा बरेली में पढ़ा। पहला शेर 'वाकिफ नहीं तुम अपनी निगाहों के असर से, इस राज़ को पूछो किसी बरबाद नजर से' रहा। कम समय अंतराल में ही वह बाराबंकी फिर यूपी के बाद पूरे मुल्क में मशहूर हो गये। खुमार साहब का 'तरन्नुम' गजब का रहा इसलिए वह जल्द ही बड़ों का मुकाबला करने लगे। बड़े शायरों के बाद अगर किसी को तवज्जो दी जाती थी तो वो खुमार साहब ही थे। महान शायर और गीतकार मजरूह सुलतानपुरी उनके अज़ीज़ दोस्त थे।

जितना बड़ा क़द विनम्रता की उतनी ही बड़ी मूरत, कभी-कभी तो मुशायरों में उन्हे घंटों तक ग़ज़ल पढ़नी पड़ती थी, लोग उठने ही नहीं देते थे। हर मिसरे के बाद "आदाब" कहने की इनकी अदा इन्हें बाकियों से मुख्तलिफ़ करती। अपने जीवन काल में खुमार साहब ने कुछ फ़िल्मों के गीत भी लिखे। 1942-43 में प्रख्यात फिल्म निर्देशक एआर अख्तर ने उन्हे मुम्बई बुला लिया। यहाँ से शुरू हुआ उनका फ़िल्मी सफ़र। फ़िल्म 'बारादरी' के लिये लिखा गया उनका यह गीत 'तस्वीर बनाता हूँ, तस्वीर नहीं बनती' आज भी लोगों के दिलों में बसा है। इसके अलावा भी तमाम गीत आज भी हमारी ज़िन्दगी में रस घोल देते हैं। खुमार साहब ने चार पुस्तकें भी लिखीं ये पुस्तकें शब-ए-ताब, हदीस-ए-दीगर, आतिश-ए-तर और रख्स-ए-मचा हैं।

खुमार की पुस्तकें कई विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल की गई। उन्हें ढेर सारे मंचों पर तरह तरह के सम्मान हासिल हुए। वर्ष 1992 में दुबई में खुमार की प्रसिद्धि और कामयाबी के लिये जश्न मनाया गया। 25 सितम्बर 1993 को बाराबंकी जिला मुख्यालय पर जश्न-ए-खुमार का आयोजन हुआ, इस आयोजन में तत्कालीन गवर्नर मोतीलाल वोरा ने एक लाख की धनराशि व प्रशस्ति पत्र देकर खुमार साहब को सम्मानित किया।

इसी बीच उन्हे शहंशाह ए गजल का खिताब भी मिला। दुखद पहलू यह कि इतने बड़े नामचीन शायर और हस्ती खुमार बाराबंकवी का अंतिम समय काफी कष्टप्रद रहा। करीबी बताते हैं कि मौत के एक साल पहले से ही उन्होंने खाना पीना छोड़ दिया था। 13 फ़रवरी 99 को उनकी काफी हालत गंभीर हो गई। लखनऊ के मेडिकल कालेज में 19 फ़रवरी की रात उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

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