बढ़ता भूस्खलन
बीते महीनों में बारिश के कारण हिमालयी क्षेत्रों में भूस्खलन की घटनाओं में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। हिमाचल प्रदेश में रविवार से हो रही लगातार बारिश के साथ ही बादल फटने और भूस्खलन से वहां का जनजीवन अस्त व्यस्त होने के साथ-साथ आवागमन भी प्रभावित हो रहा है। कई स्थानों पर सड़कों पर ब्लॉक जैसी स्थिति हो गई है। मौसम विभाग की मानें तो हिमाचल प्रदेश में इस साल अब तक 742 मिलीमीटर बारिश हो चुकी है।
राज्य आपातकालीन परिचालन केंद्र के मुताबिक हिमाचल में मानसून की शुरुआत के बाद से पिछले दो महीने में भूस्खलन की 113 घटनाएं घटी हैं। बीते वर्षों में पहाड़ों पर भारी बारिश व भूस्खलन चिंता का सबब बनता जा रहा है। हालांकि पहाड़ों में यह पहली बार नहीं है कि इतनी तबाही हुई है। इससे पहले भी देश के पहाड़ी राज्यों में ऐसी तबाही होती रही है। इनमें न सिर्फ बड़ी संख्या में लोगों को जान गंवानी पड़ रही है, बल्कि निजी और सरकारी संपत्तियों को भी बड़ा नुकसान होता जा रहा है। उत्तराखंड के केदारनाथ में सन 2013 में भयंकर जल प्रलय हुई थी जिसमें जान माल का भारी नुकसान हुआ था।
ऐसे में सवाल यही उठता है कि प्राकृतिक आपदाओं के कारण हो रही तबाही को कम करने की दिशा में कदम उठाने के लिए हमने क्या सबक लिए? हर बार हम आपदाओं पर संवेदना व्यक्त करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं और स्थिति सामान्य होने के बाद फिर उसी ढर्रे पर ससाधनों का अतिशय दोहन शुरू कर देते हैं।
हिमालय को धरती का मुकुट कहा जाता है, लेकिन आज हिमालय चिंता का मुकुट बनता जा रहा है। इसके पीछे मानवीय महत्वाकांक्षाओं का होना सबसे बड़ा कारण है। हमने पहाड़ों को बाजारवाद के हवाले कर दिया है, वहां पर जिस तरह आधारभूत ढांचे को ध्वस्त करने के साथ -साथ होटलों आदि तक में अंधाधुंध निर्माण कार्य किया है। पहाड़ों को एक तरफ खोदा है और दूसरी तरफ उन पर क्रंक्रीट का निर्माण कार्य करके बोझ बढ़ा दिया है, उससे प्रकृति द्वारा निर्मित इन मनोहर स्थानों का स्वरूप बदल रहा है।
पिछले दिनों जोशीमठ की हालत देखी थी कि किस प्रकार यह शहर दरकने लगा है। ऐसे कई रिहायशी क्षेत्र जिनमें जोशीमठ की भांति दरारें पड़ रही है, जिसके कारण लोग घर छोड़ने को मजबूर हो रहें हैं। इस सब घटनाओं से सबक लेते हुए हमें और सरकारों को इस आपदा से मिलकर निपटना होगा अन्यथा धरती का यह प्राकृतिक खजाना हमारी असीम महत्वाकांक्षाओ की भेंट चढ़ जाएगा।
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