मुरादाबाद : सूफी अंबा प्रसाद भटनागर ने अंग्रेजी हुकूमत को खूब छकाया, संपत्ति जब्त हो गई पर नहीं टेके थे घुटने

मुरादाबाद में जन्मे सूफी को जेल में असहनीय कष्ट मिले, संपत्ति जब्त हो गई पर अंग्रेजों के आगे नहीं टेके थे घुटने, सूफी मोहम्मद हुसैन नाम बदलकर रहे थे पहाड़ों पर

मुरादाबाद : सूफी अंबा प्रसाद भटनागर ने अंग्रेजी हुकूमत को खूब छकाया, संपत्ति जब्त हो गई पर नहीं टेके थे घुटने

निर्मल पांडेय/मनोज कुमार/अमृत विचार। मुरादाबाद में जन्में सूफी अंबा प्रसाद भटनागर के नाम से अंग्रेजी हुकूमत कांपती थी। उनका जिक्र होने भर से ही अंग्रेजी अफसरों में खलबली मच जाती थी। उन्होंने अंग्रेजों और उनकी नीतियों का कई तरीके से विरोध किया। विद्वता के बल पर उन्होंने हिंदू-मुस्लिम के विरुद्ध अंग्रेजों की साजिशों को नाकाम किया। 

देश प्रेम के अद्भुत जज्बे के कारण अंग्रेज सरकार के लिए बड़ी मुसीबत बने अंबा प्रसाद का कर्मक्षेत्र रुहेलखंड, पंजाब, नेपाल से लेकर बलूचिस्तान,अफगानिस्तान और ईरान तक फैला था। अंग्रेजों से अपनी लेखनी से लोहा लेने की बात हो या फिर उनके गढ़ में घुसकर जासूसी वाला जोखिम कार्य हो, अंबा प्रसाद को इन सब में महारत हासिल थी। इनका जन्म 1858 को मुरादाबाद के मुहल्ला कानूनगोयान में हुआ था। उन्होंने परास्नातक करने के बाद वकालत की डिग्री पाई थी। उनके जन्म से दायें हाथ में समस्या थी।

पारसी भाषा के विद्वान अंबा प्रसाद ने मुरादाबाद से उर्दू साप्ताहिक अखबार का प्रकाशन किया। अंग्रेज सरकार के खिलाफ इस जंग में वह हिन्दू-मुस्लिम एकता के जबरदस्त हिमायती रहे। उन्होंने अंग्रेजों की हिन्दू-मुसलमानों को लड़वाने के लिए रची गई साजिशें अपने अखबार के जरिये बेनकाब की थी। वह रूप-पहनावा बदलकर सरकारी अफसरों के बीच बैठकर उनकी गोपनीयता व साजिशों को जान लेते थे। कई बार जेल में असहनीय कष्ट भरे दिन (1897-1906) उन्हें गुजारने पड़े। उनकी सारी संपत्ति भी अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर ली, लेकिन उन्होंने सिर नहीं झुकाया। जेल से छूटने पर निजाम हैदराबाद ने उन्हें सारी सुविधाओं के साथ बसने का निमंत्रण दिया। लेकिन, उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया।

कानून गोयान में छापाखाना
अंबा प्रसाद भटनागर का कानून गोयान में छापाखाना अभी भी है। जीर्णशीर्ण हालत में इस दो मंजिला छापाखाना की ऊपरी बिल्डिंग गिर चुकी है। छापाखाना खंडहर के रूप में आज भी मौजूद है। इसे विरासत के रूप में संजोने की जरूरत है। -धवल दीक्षित, महामंत्री, अखिल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उत्तराधिकारी संगठन

बेघर व जेल से रिहा होने पर भगत सिंह के चाचा से जुड़े अंबा
संपत्ति जब्त होने और जेल से रिहा होने पर अंबा प्रसाद पंजाब गए। फिर शहीद सरदार भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह के संपर्क में आए और उनकी भारत माता सोसाइटी से जुड़कर काम किया। यहां पर भी अंग्रेजों की बढ़ती घेराबंदी से उन्हें अजीत सिंह के साथ नेपाल में शरण लेनी पड़ी। वर्ष 1906 में जब अजीत सिंह को बंदी बनाकर देश निकाले की सजा मिली तो सूफी के पीछे भी पुलिस पड़ गई। सूफी अपने साथी कल्याण चंद्र दीक्षित एवं अन्य साथियों के साथ पहाड़ों पर चले गये। कई वर्षों तक वे पहाड़ों पर इधर-उधर घूमते रहे। फिर सूफी लाहौर गए थे।

लाहौर में भी अंग्रेजों को छकाया, बदल लिया नाम
लाहौर में रहने के दौरान अंबा प्रसाद भटनागर एक पत्र में फिर लेख लिखने लगे थे। सूफी शिवाजी के अनन्य भक्त थे। लाला पिंडी दास के अखबार इंडिया में प्रकाशित उनके लेखों को आपत्तिजनक मानते हुए अंग्रेजों ने उन्हें अभियुक्त बनाया, लेकिन अंग्रेज सूफी के विरुद्ध दोष सिद्ध नहीं कर सके। सूफी के द्वारा लिखी पुस्तक जब्त कर ली गई। वर्ष 1909 में उन्होंने पंजाब से पेशवा अखबार का प्रकाशन शुरू किया। अब अंग्रेज सरकार को चिंता हुई कि यह अखबार रुहेलखंड जैसे हालात न पैदा कर दे। इसलिए सूफी की अंग्रेजों ने तलाश तेज कर दी। तेज होती धरपकड़ से तंग आकर अंबा प्रसाद ने अपना नाम बदलकर सूफी मोहम्मद हुसैन रख लिया।


ईरान में सूफी ने ली अंतिम सांस
लाहौर में अंग्रेजों के अत्यधिक दवाब में सूफी को अपने साथियों के साथ देश छोड़ कर ईरान में शरण लेने के लिए विवश होना पड़ा। ईरान में अंबा प्रसाद भटनागर सूफी मोहम्मद हुसैन के नाम से चर्चित हुए। यहां शीराज में उन्होंने गदर पार्टी के साथ काम किया। ईरान में लिखी गई उनकी पुस्तक ‘आबे हयात’ उस दौर में काफी चर्चा में रही थी। अंततः अंग्रेजों ने उन्हें (अंबा प्रसाद भटनागर) को ईरान में गिरफ्तार कर लिया। उनको गोली मारने का आदेश हुआ। परंतु इससे पहले ही 21 फरवरी 1915 में उनका देहावसान हो गया। शीराज में उनका मकबरा स्थित है, आज भी ईरान में उनका नाम बड़ी श्रद्धा-आस्था से लिया जाता है। उर्स का आयोजन होता है।

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