तुलसीदास के जीवन की यह खास घटना गोकुलनाथ की दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता में है वर्णित
तुलसीदास में इतिहास और जनश्रुतियों का अद्भुत समावेश है। तुलसीदास के शिष्य बेनी माधव विरचित मूल गुसाई चरित्र के अनुसार तुलसीदास का जन्म सं 1554 में रजियापुर में हुआ था। उनके पांडित्य, रूप और गुण पर मुग्ध होकर उन्हें यमुनापार के एक ब्राह्मण ने दामाद बनाया था- रसकेली में पाँच वर्ष बीत जाने पर रत्ना …
तुलसीदास में इतिहास और जनश्रुतियों का अद्भुत समावेश है। तुलसीदास के शिष्य बेनी माधव विरचित मूल गुसाई चरित्र के अनुसार तुलसीदास का जन्म सं 1554 में रजियापुर में हुआ था। उनके पांडित्य, रूप और गुण पर मुग्ध होकर उन्हें यमुनापार के एक ब्राह्मण ने दामाद बनाया था- रसकेली में पाँच वर्ष बीत जाने पर रत्ना पति की अनुपस्थिति में भाई के साथ मायके चली गई, वे तत्काल ससुराल पहुँचे और गोहार लगाने लगे। पत्नि के उपदेश से उन्हें वैराग्य प्राप्त हुआ और वे उलटे पाँव लौट चले।
मूल गुसाई चरित अभी तक अप्रमाणित रचना मानी जा रही है। तुलसी के जीवन से संबंधित लगभग यही घटना गोकुलनाथ की दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता में वर्णित है । इसके अतिरिक्त रघुबरदास कृत तुलसी चरित्र , रघुवीरसिंह विरचित गोसाई चरित्र , घट रामायण (तुलसी साहब ), गौतम चन्द्रिका ( कृष्णदास मिश्र ), भविष्य पुराण , भक्तमाल ( नाभादास ), पद प्रसंग माला ( नागरीदास ) आदि में गुसाई जी के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस पर विशद रूप से विवेचना की है और अनेक जनश्रुतियों को स्वीकार भी किया है। निराला ने संभवतः मूल गुसाई चरित्र और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता को आधार माना है। इसके साथ ही जनश्रुतियों और नवीन उद्भावनाओं की सृष्टि से कथा को रोचक और स्वाभाविक बनाया है। चित्रकूट प्रसंग उनकी उदात्त कल्पना का परिचायक है। क्योंकि तुलसीदास वैराग्य के बाद ही ( संभवतः प्रमुख तीर्थ और चारों धाम की यात्रा के बाद ) चित्रकूट में बहुत दिन तक रहे।
यहाँ वैराग्य के पूर्व संस्कारों की परीक्षा हेतु निराला चित्र भ्रमण की अवतारणा करते हैं । यह उद्भावना वैसे तुलसीदास के जीवन में असंभावित नहीं माना जाना चाहिए । डॉ . इन्द्रनाथ मदान के अनुसार देश में उन्हें दो स्थान विशेष प्रिय थे , एक तो चित्रकूट और दूसरा काशी । ऐसा प्रतीत है कि चित्रकूट में उनके ज्ञान चक्षु खुले थे । अब चित चेति चित्रकूट हि चलु आदि से यही ध्वनित होता है ।८ अतः यह नवीन उद्भावना कोरी कल्पना नहीं बल्कि उनके स्वभाव के अनुकूल है ।
तुलसीदास में स्थूल की अपेक्षा भावों का सुन्दर विकास हुआ है। तुलसीदास की भूमिका में रायकृष्ण दास का यह कथन इस दृष्टि से अत्यत सार्थक है। उनके अनुसार ‘ पद्य ‘ में कहानी कहने की प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित है। कथा को प्राधान्य देने वाली कविताएँ हिन्दी में शतशः है परंतु मनोविज्ञान को आधार मान कर पद्य में लिखी जाने वाली कविताओं में यह एक ही है। यहाँ कथा अत्यंत क्षीण किन्तु स्पष्ट है। वैसे भी कवि का उद्देश्य तुलसीदास की कथा कहना न होकर भारतीय संस्कृति के पतन के कारणों का सिंहावलोकन एवं राष्ट्रीय जन जागरण हेतु कवि का उर्ध्वगमन तथा अज्ञानता को दूर करने वाले सांस्कृतिक सूर्योदय का आह्वान है। क्रमश: –
- डाॅ. बलदेव
यह भी पढ़े-
तुलसीदास महाकवि निराला की सांस्कृतिक चेतना का है उज्ज्वलतम इतिहास