Bareilly: पाकिस्तान से भागना पड़ा...कई दिनों तक पैदल चले, फिर पहुंचे भारत, अब मिली नागरिकता
बरेली, अमृत विचार : निरंजन मंडल का परिवार पूर्वी पाकिस्तान के फरीदपुर मंडल के गांव राजा चौर में रहता था। 25 मार्च 1971 को पाक वाहिनी का हमला शुरू होने के बाद उन्हें इतने आननफानन अपनी मां को लेकर वहां से भागना पड़ा था कि अपने चार भाइयों को इसकी सूचना तक नहीं दे पाए। पाक वाहिनी से छिपते हुए लगातार 10 दिन पैदल चलकर कोलकाता पहुंचे जहां 20 दिन राहत शिविर में रहने के बाद नेपाल के रास्ते न्यूरिया हुसैनपुर आकर बस गए। 74 साल की उम्र में जीवन के आखिरी पड़ाव पर आकर उन्हें भारतीय नागरिकता के रूप नए जीवन की राह मिली है।
भारतीय नागरिकता पाने वालों में न्यूरिया हुसैनपुर गांव के निरंजन मंडल पहले व्यक्ति हैं। इससे पहले यहां 53 साल का उनका वक्त तमाम उतारचढ़ाव और हर पल डर के साए में रहते हुए गुजरा है। इतने लंबे वक्त से न्यूरिया में रहते हुए वह हमेशा एक तरफ अपनों से बिछड़ने के दुख और दूसरी तरफ भारत आकर भी नागरिकता न मिलने के तनाव से जूझते रहे। 13 दिसंबर को भारतीय नागरिकता मिलने की ऑनलाइन सूचना ने उनका यह दर्द काफी हद तक कम कर दिया है। घुसपैठिये से भारतीय नागरिक बन जाने का एहसास कई दिन बाद भी निरंजन मंडल को भावुक बनाए हुए हैं।
निरंजन के परिवार में यहां उनकी पत्नी मीरा और बेटा कृष्णा हैं। तीन बेटियों रीना, बीना और जीवन की शादी हो चुकी है। नागरिकता मिलने के बाद सभी बहुत खुश है। अमृत विचार संवाददाता से बात करते हुए निरंजन ने बताया कि उनका जीवन तो काफीकुछ कट गया। इस बात का सुकून है कि जो तकलीफें उन्हें सहनी पड़ीं, वे उनकी आने वाली पीढ़ियों को नहीं सहनी पड़ेंगी।
भाइयों से बिछड़े तो फिर कभी नहीं मिले, 30 साल बाद मिली सहीसलामत होने की खबर
निरंजन ने बताया कि उनका जन्म 1950 में हुआ था। गांव राजा चौर में कुटुंब के 11 लोगों के साथ वह रहते थे। पिता कार्तिक मंडल की पांच एकड़ खेती थी, परिवार का जीवनयापन इसी के सहारे होता था। 1970 में पिता के देहांत से पहले ही निजी खर्च के लिए उन्होंने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था और गांव में मास्टर जी नाम से मशहूर हो गए थे। 1971 में पाक वाहिनी के हमले के बाद परिवार का सारा तानाबाना बिखर गया। न्यूरिया आने के बाद भी जीविका चलाने के लिए उन्होंने बच्चों को पढ़ाने की शुरुआत की। वर्ष 2000 में जाकर उन्हें पता चल पाया कि बांग्लादेश में उनके चारों भाई भी सही-सलामत हैं।
सबकुछ गंवाकर बांग्लादेश से भारत आए थे गोपाल के पिता
न्यूरिया हुसैनपुर के गोपाल भारतीय नागरिकता पाने वाले दूसरे व्यक्ति हैं। हालांकि उनका जन्म भारत में ही हुआ था। उनके पिता हरिचरन वाला बांग्लादेश के मदारीपुर के गांव आमग्राम के निवासी थे जो बागवानी के जरिए परिवार का पालनपोषण करते थे। 1971 में पाक वाहिनी के हमले के दौरान उनका परिवार भी तबाह हो गया।
हरिचरन ने 1988 में न्यूरिया हुसैनपुर आकर भारत में बसने का फैसला लिया जहां उनके कई परिजन पहले से रह रहे थे। वह पासपोर्ट के जरिए भारत आए। गोपाल की मां कल्पना ने बताया कि हिंदी समझ में न आने की वजह से शुरू में यहां बहुत समस्या रही। धीरे-धीरे उन्होंने हिंदी सीख ली। हरिचरन और कल्पना को खुशी है कि उनके बेटे को नागरिकता मिल गई। 24 साल के गोपाल बीफार्मा की पढ़ाई कर रहे हैं।
मिनी बांग्ला कहलाता है न्यूरिया हुसैनपुर
न्यूरिया हुसैनपुर के ग्राम प्रधान विश्वनाथ बताते हैं कि गांव की करीब आठ हजार की आबादी में करीब छह हजार वोट हैं। इस गांव को मिनी बांग्ला भी कहा जाता है। बंगाली समाज के ऐसे लोगों की यहां बहुतायत है जो बांग्लादेश से आए और जिनकी पीढ़ियों ने पूरा जीवन भारत में गुजार दिया लेकिन उन्हें नागरिकता नहीं मिली। तमाम उम्रदराज लोगों के पास आज भी नागरिकता नहीं है। उनकी दूसरी या तीसरी पीढ़ी को भारतीय नागरिकता मिल पाई है।
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