Exclusive: एक मिट्टी के दीये के पीछे की मेहनत, तुम क्या जानो बाबू जी!...वक्त के साथ बदले कुंभकारों के दीये और चाक

Exclusive: एक मिट्टी के दीये के पीछे की मेहनत, तुम क्या जानो बाबू जी!...वक्त के साथ बदले कुंभकारों के दीये और चाक

उन्नाव, ब्रजेंद्र प्रताप सिंह। दीवाली का महापर्व शुरू हो गया है। जहां सड़क किनारे दीया खरीदते हुए जाने अनजाने मोलभाव में आपने भी कभी ना कभी कहा ही होगा... अरे भइया मिट्टी का ही तो है, सस्ता लगा दो। कुंभकार की मेहनत को सबसे ज्यादा चोट और ठेस आपकी इस एक बात से ही लगती है।

सफीपुर कस्बा के प्रजापति मोहल्ले (कुम्भरौटा मोहल्ला) निवासी रमेश चंद्र प्रजापति व दिनेश चंद्र प्रजापति का परिवार इस समय काफी व्यस्त है। वे चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाने का काम जो करते हैं। दीवाली उनके काम का पीक सीजन है। हाथों के बने दीयों की मांग के हिसाब से सप्लाई के लिए उन्हें दिनरात काम करना पड़ता है। रमेश चंद्र प्रजापति का पूरा परिवार न सिर्फ इस काम में हैं उनके पिता व चाचा को तो उनके हुनर और कला के लिए के लिए विशेष रूप से जाना जाता था। वे करीब 30 साल से कस्बे के कुम्भरौटा मोहल्ले में रहकर अपना पारम्परिक काम कर रहे हैं। 

वक्त के साथ बदल गये कुंभकारों के दीये और चाक 

रमेश चंद्र प्रजापति व उनके भाई दिनेश चंद्र प्रजापति बताते हैं कि अब बाजार में लाइट वाले दीयों की ज्यादा मांग है। अमृत विचार संवाददाता जब उनसे पूछा कि आधुनिक युग में मशीनों के आने और बड़े बाजार के उनके काम में कब्जा कर लेने से क्या कुंभकारों के काम में कोई कमी आई हैं? इस पर रमेशचंद्र प्रजापति ने बताया कि डिजाइनर दीये बनाना भी हमारा ही काम है। 

पहले सिंपल दीये बनाए जाते थे लेकिन अब उनकी मोल्डिंग की जा रही है। उस पर डिजाइन भी हम लोग ही करते हैं। कहीं-कहीं मशीन से भी मदद लेते हैं। लेकिन ज्यादातर हम लोग हाथ से ही दीये बनाते हैं। हालांकि पहले चाक से दीये बनाए जाते थे लेकिन इस आधुनिकता के दौर में वे भी विद्युत चलित चाक पर कार्य करते हैं। जिससे कम समय में अधिक दीये, हुंडा, गोलक व कुज्जा सहित अन्य मिट्टी के बर्तन बनाए जा सकते हैं। 

प्रधानमंत्री के वोकल फॉर लोकल का भी दिखा असर 

रमेश चंद्र प्रजापति ने कहा कि दीये बनाने वाले इस बात से भी उत्साहित हैं कि जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वोकल फॉर लोकल को बढ़ावा दिया हैं। लोग चाइनीज सामान के बजाय कुंभकार के हाथों से बने दीयों को खूब तवज्जो दे रहे हैं। कस्बे की कई गलियों में दीये बनाने वाले रहते हैं जो दीवाली के बाद सजावटी सामान बनाते हैं और उसके बाद घड़े बनाते हैं। उन लोगों का कहना है कि दीवाली के समय सबसे ज्यादा दीयों का काम होता था। लेकिन अब काफी लोगों ने मिट्टी के लक्ष्मी-गणेश भी बनाने का शुरू कर दिए हैं।

कितनी मेहनत से बनते हैं मिट्टी के बर्तन

मिट्टी की चाक पर रोज रौशनी गढ़ते इन कुंभकारों की दिक्कत बस यह है कि काम में जितनी मेहनत है उतने दाम नहीं मिलते। खरीदार अक्सर यही कहते हैं कि मिट्टी का ही तो है। उन्हें नहीं पता कि मिट्टी के दीये बनाने में मेहनत कितनी की गई है। मिट्टी कहीं खेतों तो कहीं नाली किनारे पड़ी थी। जब वह उनके पास आती है तो कई दिन की मेहनत के बाद बर्तन बनाने के लिए तैयार हो पाती है।

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