प्रयागराज : परिस्थितिजन्य समर्थन के अभाव में कोर्ट के बाहर स्वीकारोक्ति एक कमजोर साक्ष्य

प्रयागराज : परिस्थितिजन्य समर्थन के अभाव में कोर्ट के बाहर स्वीकारोक्ति एक कमजोर साक्ष्य

अमृत विचार, प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने न्यायालय के बाहर की गई स्वीकारोक्ति को कमजोर साक्ष्य बताते हुए कहा कि न्यायालय के बाहर की गई स्वीकारोक्ति एक कमजोर साक्ष्य है, जब तक कि उपस्थित परिस्थितियां स्वीकारोक्ति को विश्वसनीयता प्रदान नहीं करती हैं। उक्त आदेश न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी की खंडपीठ ने वर्ष 2010 के हत्या मामले में दोषी करार अभियुक्त कृष्ण प्रताप सिंह को बरी करते हुए पारित किया। आरोपी के विरुद्ध आईपीसी की धारा 302 के तहत पुलिस स्टेशन तिर्वा, कन्नौज में प्राथमिकी दर्ज कराई गई थी।

मामले के अनुसार सूचनाकर्ता (मृतका के पति) ने अक्टूबर 2010 में प्राथमिकी में यह आरोप लगाया कि आरोपी ने दो गवाहों की उपस्थिति में यह कबूल किया कि उसने मृतका के साथ दुष्कर्म करने का प्रयास किया और फिर उसे रिपोर्ट करने से रोकने के लिए गला दबाकर उसकी हत्या कर दी। इस कथित असाधारण स्वीकारोक्ति के आधार पर जांच अधिकारी ने अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 के तहत आरोप पत्र दाखिल किया। आरोपी के अधिवक्ता का तर्क है कि अभियोजन पक्ष के साक्ष्य विश्वसनीय नहीं है, विशेष रूप से अतिरिक्त न्यायिक स्वीकारोक्ति, जो पूरी तरह से मनगढ़ंत लगती है। इसके अलावा कोर्ट को यह भी बताया गया कि सूचनाकर्ता ने एक अन्य महिला से संबंध होने के कारण अपनी पत्नी की हत्या स्वयं की और पुलिस के साथ मिलीभगत करके साक्ष्यों में हेरफेर कर अपने भाई (आरोपी- अपीलकर्ता) को झूठा फंसाया।

अंत में कोर्ट ने साक्ष्यों की सत्यता का परीक्षण कर पाया कि सूचनाकर्ता ने अपनी पत्नी की मृत्यु के 1 महीने के भीतर दूसरी महिला के साथ पुनर्विवाह कर लिया था। असामान्य परिस्थितियों में हुए ऐसे विवाह को आश्चर्यजनक मानते हुए कोर्ट ने सूचनाकर्ता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाया, साथ ही इस बात पर भी जोर दिया कि आरोपी को दोषी ठहराने के लिए अकेले सूचनाकर्ता के बयान पर भरोसा करना सुरक्षित नहीं होगा। अतः कोर्ट ने सत्र न्यायालय, कन्नौज द्वारा अभियुक्त की दोषसिद्धि और परिणामी सजा के निष्कर्ष का समर्थन करने से इनकार करते हुए आपराधिक अपील को स्वीकार कर लिया और अभियुक्त को बरी कर दिया

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