मथुरा: ब्रजमंडल में 'बूरा खाने' की परंपरा अब तोड़ रही है दम, रक्षाबंधन पर जीवंत हो उठी कहानी

मथुरा: ब्रजमंडल में 'बूरा खाने' की परंपरा अब तोड़ रही है दम, रक्षाबंधन पर जीवंत हो उठी कहानी

मथुरा। समाज में आधुनिकता के बढ़ते प्रभाव के कारण रक्षाबंधन पर सामाजिक एकता और सद्भाव बनाने वाली ब्रजमंडल की ’’बूरा खाने’’ की परंपरा अब दम तोड़ रही है। इतिहास साक्षी है कि पहले रक्षाबंधन पर ’’बूरा खाने’’ की परंपरा का चलन इतना अधिक था कि रक्षाबंधन पर न केवल नव विवाहित व्यक्ति ही अपनी ससुराल जाता था बल्कि बड़े बुजुर्ग भी इस परंपरा का पूरे जोश से निर्वहन करते थे तथा सजी सजाई बैलगाड़ी से ससुराल जाते थे।

’’बूरा खाने’’ के बहाने विवाहित व्यक्ति अपनी पत्नी को ससुलराल से विदा कराकर लाता है क्योंकि उसकी पत्नी हरियाली तीज के बाद अपने मायके चली जाती है। विवाहित व्यक्ति वह न केवल एक परिवार का बल्कि पूरे गांव का दामाद होता था और उसे ’’मेहमान’’ कहा जाता था, व गांव का हर परिवार उसे अपने यहां भोजन या नाश्ते के लिए बुलाता था। दामाद की जबर्दस्त खातिरदारी होती थी मगर इस परंपरा में अब बहुत अंतर आ गया है। 

मथुरा के चैमुहा कस्बे के निवासी अधिवक्ता भारत मोहन भारद्वाज ने बताया कि जब वे पहली बार ’’बूरा खाने’’ के लिए अपनी ससुराल गए थे तो बैलगाड़ी की जगह कार से गए थे। उन्होंने बताया कि प्रत्येक विवाहित व्यक्ति को ’’सौगी ’’ ले जाना आवश्यक होता है। सौगी में झूला, पटरी, घेवर, बूरा , खेलखिलौने आदि लेकर अपने छोटे भाइयों के साथ जाते हैं । 

उन्होने बताया कि उनके साथ 12 छोटे भाई बहन और गए थे।उस समय दामाद को कुश्ती लड़ने के साथ लम्बी कूद , कबड्डी आदि में भाग लेना आवश्यक था। लोग कम से कम तीन दिन और अधिकतम दास दिन तक ससुराल में रहते थे तथा पूरा गांव दामाद की खातिरदारी करता था। जब ससुराल से लौटते थे तो दामाद और उसके साथ गए लोगों को रूपए , कपड़े आदि देने के साथ शुद्ध घी और राशन तक दिया जाता था । दामाद के साथ उसकी पत्नी भी विदा होकर आती है। 

उन्होंने बताया कि अब तो ’’बूरा खाना’’ कुछ घंटों का ही खेल रह गया है। मेहमान रक्षाबंधन पर या उसके एक दो दिन पहले आते हैं। दो तीन घंटे ही रूकते हैं तथा खाना खाकर भेंट लेकर चले जाते हैं बहन भी राखी देकर रक्षाबंधन के दिन बांधने का निर्देश देकर चली जाती है ।

मथुरा जिले के राधाकुंड के पाली ब्राम्हरान निवासी घनश्याम सिंह सेनी ने कहा कि अब प्रेम भाव खत्म हो गया है तथा गावों में गुटबन्दी के कारण एक दूसरे के दरवाजे पर जाना भी समाप्त होता जा रहा है तथा कुश्ती और लम्बी कूद आदि बीते जमाने की बात बनती जा रही हैं।

सुरीर निवासी ज्ञानेन्द्र सिंह का कहना था कि पहले गावों में ’’बूरा खाना’’ एक पर्व और उत्सव की तरह मनाया जाता था जिसमें गांव के सभी लोग मिलजुलकर भाग लेते थे पर अब यह केवल औपचारिकता तक ही सीमित रह गया है। 

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