ऐतिहासिक फैसला
बीते बुधवार को तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए गुजारा भत्ता संबंधी में सर्वोच्च न्यायालय का किया गया फैसला ऐतिहासिक और सामाजिक तानेबाने के लिहाज से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। हालांकि पूर्व में भी मुस्लिम महिलाओं के गुजारा भत्ते संबंधी विवादों पर अदालतें सहानुभूति पूर्वक विचार कर चुकी हैं। करीब दो वर्ष पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि तलाक के बाद महिला को पति से गुजारा भत्ता पाने का पूरा हक है। हाल में आए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का धर्मनिरपेक्ष‚ लोकतांत्रिक और सभ्य समाज के सभी लोगों ने स्वागत किया है।
न्यायालय ने कहा है कि हर महिला को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी धर्म की हो। गौरतलब है कि अभी तक मुस्लिम पर्सनल कानून के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का गुजारा भत्ता तय होता था। शरीअत कानून के मुताबिक इद्दत की अवधि अर्थात तीन महीने की वह अवधि, जिसमें महिला किसी दूसरे के साथ विवाह नहीं कर सकती, तक ही तलाकशुदा महिला को गुजारा भत्ता दिया जा सकता है।
हमारे समाज में आज भी अधिकतर महिलाएं विवाह के बाद पति पर निर्भर हैं। किन्हीं स्थितियों में पति उन्हें छोड़ देता है तो उनका भरण-पोषण मुश्किल हो जाता है। साथ ही जिन महिलाओं पर बच्चों को पालने की भी जिम्मेदारी हो उनका जीवन बहुत ही दुष्कर हो जाता है। बहुत सारी तलाकशुदा मुस्लिम औरतें दुबारा शादी नहीं करतीं, इसलिए केवल इद्दत तक गुजारा भत्ता पाने से उनके जीवन की मुश्किलें दूर नहीं हो पातीं।
वहीं जो महिलाएं दूसरा विवाह कर भी लेती हैं, जरूरी नहीं कि उससे उनके बच्चों का उचित तरह से पालन-पोषण हो ही जाए। यहां सवाल यह है कि किसी महिला को केवल धर्म के आधार पर दूसरी महिलाओं से अलग क्यों माना जाना चाहिए? भारत के नागरिक के तौर पर हर महिला को समान अधिकार मिलना चाहिए। इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी बल दिया कि गुजारा भत्ता न्यूनतम नहीं, बल्कि पर्याप्त मात्रा का होना चाहिए यानी महिला सही से अपना गुजारा कर सके।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने 1986 कानून की नए सिरे से व्याख्या की है। उसने महिला को केवल महिला के रूप में देखा है और उसकी धार्मिक पृष्ठभूमि पर ध्यान देने की बजाय उसकी जरूरतों को प्राथमिकता दी है। साथ ही अदालत ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का विस्तार किया है कि वह चाहे तो सीआरपीसी की धारा-125 के तहत गुजारा भत्ता ले या 1986 कानून के तहत गुजारा भत्ता ले या दोनों के तहत ही अपने अधिकारों को हासिल कर ले। यह लिंग समता की दृष्टि से सराहनीय और स्वागतयोग्य फैसला है।