सालों से देवताओं की रसोई में स्वाद पैदा कर रहे हैं धर्मपाल गुलाटी के मसाले, जानें इतिहास

सालों से देवताओं की रसोई में स्वाद पैदा कर रहे हैं धर्मपाल गुलाटी के मसाले, जानें इतिहास

हम चटोरों के देश का असली बादशाह था यह सींकिया बूढ़ा। सुनहरी मूठ वाली नफीस छड़ी और राजस्थानी साफे को उसने अपने कॉस्टयूम का जरूरी हिस्सा बना लिया था। वह इंटरव्यू लेने आने वालों को बार-बार बताता था कि वह पांचवीं फेल है। उसके काम ऐसे थे कि सरकार ने उसे पद्मभूषण से नवाजा। जब …

हम चटोरों के देश का असली बादशाह था यह सींकिया बूढ़ा। सुनहरी मूठ वाली नफीस छड़ी और राजस्थानी साफे को उसने अपने कॉस्टयूम का जरूरी हिस्सा बना लिया था। वह इंटरव्यू लेने आने वालों को बार-बार बताता था कि वह पांचवीं फेल है। उसके काम ऐसे थे कि सरकार ने उसे पद्मभूषण से नवाजा। जब लोग उसके मरने की अफवाह उड़ाया करते वह अपनी कंपनी से 21 करोड़ की तनख्वाह ले रहा होता था।

वह अपने प्रोडक्ट्स के विज्ञापनों में खुद एक्टिंग करता था और भारतीय संस्कारों को बेचता था। इन विज्ञापनों में उसके सामने पड़ने पर जीन्सधारी बहू-बेटियां सर पर दुपट्टा डाल लेतीं और उसके पैर छुआ करतीं। बहुत कम टीवी देखने वाले मेरे पिताजी की बांछें उसे टीवी पर देखते ही खिल जाया करतीं और वे खुश होकर बुदबुदाते – “बड़ा जबरदस्त बुढ्ढा है यार!”

27 मार्च 1923 को चानन देवी और महाशय चुन्नीलाल के जिस आर्यसमाजी घर में महाशय धर्मपाल गुलाटी पैदा हुए वह बेहद धार्मिक था। गुलाटी परिवार मनुष्यता की सेवा करने को अपना मूलधर्म मानता था। यह आदर्शवादी परिवार मानता था कि अगर आदमी अपना सर्वश्रेष्ट समाज को देता है तो सर्वश्रेष्ठ अपने आप उस तक वापस लौटता है।

पांचवीं जमात के बाद स्कूल छूट गया और महाशय धर्मपाल गुलाटी ने फेरी लगाकर आईने बेचने का काम शुरू किया। उसमें फायदा नहीं हुआ तो घर-घर जाकर एक स्थानीय फैक्ट्री में बनने वाला साबुन बेचना शुरू किया। उसमें मन न लगा तो बढ़ईगिरी शुरू कर दी। बहुत छोटी उम्र में ही उनके भीतर आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाने का जज़्बा था। बढ़ईगिरी रास न आई तो चावल की तिजारत की। कपड़े और गुसलखानों की फिटिंग्स बेचने का धंधा भी किया।

उनके खानदान को सियालकोट में देगी मिर्च वाले कहा जाता था और उनके पिता ने महाशियाँ दी हट्टी के नाम से छोटी-मोटी मसालों की दुकान खोल रखी थी। किशोर धर्मपाल ने अंततः पिता के धंधे में साथ देने का फैसला किया। इस समय तक घाट-घाट का पानी पी चुकने के बाद उन्हें व्यापार और ग्राहक की जबरदस्त पहचान हो चुकी थी।

फिर 1947 आया। विभाजन हुआ और परिवार दिल्ली आ पहुंचा। धर्मपाल गुलाटी के पास कुल डेढ़ हज़ार रुपये थे। मन में तो मसालों का व्यापार करने की इच्छा थी लेकिन नई जगह में अजनबी को कौन पूछता। साढ़े छः सौ रूपये में तांगा खरीदा और दो आना फ़ी सवारी की दर से दिल्ली रेलवे स्टेशन से करोल बाग़ और बाड़ा हिंदूराव के बीच सवारियां ढोने लगे। थोड़ी रकम बची तो किसी नए बने परिचित की सिफारिश पर करोल बाग़ की अजमल खान रोड पर चौदह बाई नौ का एक खोखा मिल गया।

मंडी से थोक में साबुत मसाले खरीदे गए और परिवार के सारे सदस्यों को उन्हें कूटने-बाँधने में लगाया गया। इस काम को करने में उन्हें खानदानी महारत हासिल थी। पर्याप्त माल बन गया तो दुकान पर सियालकोट के देगी मिर्च वालों की महाशियाँ दी हट्टी का बोर्ड टांग दिया गया।

महाशियाँ दी हट्टी से एमडीएच बनने की कहानी लम्बी है लेकिन उसके भीतर वही तत्व हैं जो सफलता की हर कहानी में पाए जाते हैं – मेहनत, विश्वास, परोपकार और इंसानियत। पिछले साल इस कंपनी ने दो हजार करोड़ से ऊपर की आमदनी हासिल की।
महाशय धर्मपाल गुलाटी ने गरीबों के लिए अस्पताल बनाए, बीस से अधिक स्कूल खोले और अनगिनत बेसहारा लड़कियों की शादियाँ कराईं। सालों से वह देवताओं की रसोई में स्वाद पैदा कर रहा है।

-अशोक पांडेय

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