अपनी जिंदगी मे हुए गुनाह को खुलेआम कुबूल करने वाले कुछ ऐसे थे ‘मिर्जा गालिब’…

अपनी जिंदगी मे हुए गुनाह को खुलेआम कुबूल करने वाले कुछ ऐसे थे ‘मिर्जा गालिब’…

ग़ालिब अथवा मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान का जन्म 27 दिसम्बर, 1797 ई. को आगरा में हुआ था, जिन्हें सारी दुनिया ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ के नाम से जानती है। ग़ालिब उर्दू-फारसी के प्रख्यात कवि रहे हैं। इनके दादा मिर्ज़ा कौकन बेग खां समरकन्द से भारत आए थे। बाद में वे लाहौर में मुइनउल मुल्क के यहां नौकर …

ग़ालिब अथवा मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान का जन्म 27 दिसम्बर, 1797 ई. को आगरा में हुआ था, जिन्हें सारी दुनिया ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ के नाम से जानती है। ग़ालिब उर्दू-फारसी के प्रख्यात कवि रहे हैं। इनके दादा मिर्ज़ा कौकन बेग खां समरकन्द से भारत आए थे। बाद में वे लाहौर में मुइनउल मुल्क के यहां नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ां के बड़े बेटे ‘अब्दुल्ला बेग ख़ां से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग ख़ां, नवाब आसफउद्दौला की फौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा ‘बख़्तावर सिंह’ के यहां लग गए। जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए।

मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान ‘नसरुउल्ला बेग ख़ान’ ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 साल के थे, तब चचा जान भी चल बसे। मिर्ज़ा ग़ालिब का सम्पूर्ण जीवन ही दु:खों से भरा हुआ था। आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा। कर्ज़ में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानों-शौक़त में कभी कमी नहीं आने देते थे।

इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी। ग़ालिब सदा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान न बनवा सके। ऐसा मकान ज़्यादा पसंद करते थे, जिसमें बैठकख़ाना और अन्त:पुर अलग-अलग हों और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें।

5 अक्टूबर को (18 सितम्बर को दिल्ली पर अंग्रेज़ों का दुबारा से अधिकार हो गया था) कुछ गोरे, सिपाहियों के मना करने पर भी दीवार फांदकर मिर्ज़ा के मुहल्ले में आ गए और मिर्ज़ा के घर में घुसे। उन्होंने माल-असबाब को हाथ नहीं लगाया लेकिन मिर्ज़ा, आरिफ़ के दो बच्चों और चन्द लोगों को पकड़कर ले गए और कुतुबउद्दीन सौदागर की हवेली में कर्नल ब्राउन के सामने पेश किया। उनकी हास्यप्रियता और एक मित्र की सिफ़ारिश ने रक्षा की।

बात यह हुई जब गोरे मिर्ज़ा को गिरफ़्तार करके ले गए, तो अंग्रेज़ सार्जेण्ट ने इनकी अनोखी सज-धज देखकर पूछा- ‘क्या तुम मुसलमान हो?’ मिर्ज़ा ने हँसकर जवाब दिया कि, ‘मुसलमान तो हूँ पर आधा।’ वह इनके जवाब से चकित हुआ। पूछा- ‘आधा मुसलमान हो, कैसे?’ मिर्ज़ा बोले, ‘साहब, शरीब पीता हूँ; हेम (सूअर) नहीं खाता।’

जब कर्नल के सामने पेश किए गए, तो इन्होंने महारानी विक्टोरिया से अपने पत्र-व्यवहार की बात बताई और अपनी वफ़ादारी का विश्वास दिलाया। कर्नल ने पूछा, ‘तुम दिल्ली की लड़ाई के समय पहाड़ी पर क्यों नहीं आये, जहां अंग्रेज़ी फौजें और उनके मददगार जमा हो रहे थे?’ मिर्ज़ा ने कहा, ‘तिलंगे दरवाज़े से बाहर आदमी को निकलने नहीं देते थे। मैं क्यों कर आता? अगर कोई फ़रेब करके, कोई बात करके निकल जाता, जब पहाड़ी के करीब गोली की रेंज में पहुंचता तो पहरे वाला गोली मार देता। यह भी माना की तिलंगे बाहर जाने देते, गोरा पहरेदार भी गोली न मारता पर मेरी सूरत देखिए और मेरा हाल मालूम कीजिए। बूढ़ा हूं, पांव से अपाहिज, कानों से बहरा, न लड़ाई के लायक़, न मश्विरत के क़ाबिल। हां, दुआ करता हूं सो वहां भी दुआ करता रहा।’ कर्नल साहब हंसे और मिर्ज़ा को उनके नौकरों और घरवालों के साथ घर जाने की इजाज़त दे दी।

1857 के ग़दर के अनेक चित्र मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ के पत्रों में तथा इनकी पुस्तक ‘दस्तंबू’ में मिलते हैं। इस समय इनकी मनोवृत्ति अस्थिर थी। वह निर्णय नहीं कर पाते थे कि किस पक्ष में रहें। सोचते थे कि पता नहीं ऊँट किस करवट बैठे? इसीलिए क़िले से भी थोड़ा सम्बन्ध बनाये रखते थे। ‘दस्तंबू’ में उन घटनाओं का ज़िक्र है जो ग़दर के समय इनके आगे गुज़री थीं। उधर फ़साद शुरू होते ही मिर्ज़ा की बीबी ने उनसे बिना पूछे अपने सारे ज़ेवर और क़ीमती कपड़े मियां काले साहब के मकान पर भेज दिए ताकि वहां सुरक्षित रहेंगे। पर बात उलटी हुई। काले साहब का मकान भी लुटा और उसके साथ ही ग़ालिब का सामान भी लुट गया।

चूँकि इस समय राज मुसलमानों का था, इसीलिए अंग्रेज़ों ने दिल्ली विजय के बाद उन पर विशेष ध्यान दिया और उनको ख़ूब सताया। बहुत से लोग प्राण-भय से भाग गए। इनमें मिर्ज़ा के भी अनेक मित्र थे। इसीलिए ग़दर के दिनों में उनकी हालत बहुत ख़राब हो गई। घर से बाहर बहुत कम निकलते थे। खाने-पीने की भी मुश्किल थी। ऐसे वक़्त उनके कई हिन्दू मित्रों ने उनकी मदद की। मुंशी हरगोपाल ‘तुफ़्ता’ मेरठ से बराबर रुपये भेजते रहे, लाला महेशदास इनकी मदिरा का प्रबन्ध करते रहे। मुंशी हीरा सिंह दर्द, पं. शिवराम एवं उनके पुत्र बालमुकुन्द ने भी इनकी मदद की। मिर्ज़ा ने अपने पत्रों में इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की है।

जब असदउल्ला खां ‘ग़ालिब’ सिर्फ 13 वर्ष के थे, इनका विवाह लोहारू के नवाब ‘अहमदबख़्श ख़ां’ (जिनकी बहन से इनके चचा का ब्याह हुआ था) के छोटे भाई ‘मिर्ज़ा इलाहीबख़्श ख़ां ‘मारूफ़’ की बेटी ‘उमराव बेगम’ के साथ 9 अगस्त, 1810 ई. को सम्पन्न हुआ था। उमराव बेगम 11 वर्ष की थीं। इस तरह लोहारू राजवंश से इनका सम्बन्ध और दृढ़ हो गया। पहले भी वह बीच-बीच में दिल्ली जाते रहते थे, पर शादी के 2-3 वर्ष बाद तो दिल्ली के ही हो गए। वह स्वयं ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ (इनका एक ख़त) में इस घटना का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि-
“7 रज्जब 1225 हिजरी को मेरे वास्ते हुक्म दवा में हब्स सादिर हुआ। एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िन्दान मुक़र्रर किया और मुझे इस ज़िन्दाँ में डाल दिया।”

मुल्ला अब्दुस्समद 1810-1811 ई. में अकबराबाद आए थे और दो वर्ष के शिक्षण के बाद असदउल्ला खां (ग़ालिब) उन्हीं के साथ आगरा से दिल्ली गए। दिल्ली में यद्यपि वह अलग घर लेकर रहे, पर इतना तो निश्चित है कि ससुराल की तुलना में इनकी अपनी सामाजिक स्थिति बहुत हलकी थी। इनके ससुर इलाहीबख़्श ख़ाँ को राजकुमारों का ऐश्वर्य प्राप्त था। यौवन काल में इलाहीबख़्श की जीवन विधि को देखकर लोग उन्हें ‘शहज़ाद-ए-गुलफ़ाम’ कहा करते थे।

इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि, उनकी बेटी का पालन-पोषण किस लाड़-प्यार के साथ हुआ होगा। असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) शक्ल और सूरत से बड़ा आकर्षक व्यक्तित्व रखते थे। उनके पिता-दादा फौज में उच्चाधिकारी रह चुके थे। इसीलिए ससुर को आशा रही होगी कि, असदउल्ला खां भी आला रुतबे तक पहुँचेंगे एवं बेटी ससुराल में सुखी रहेगी, पर ऐसा हो न सका। आख़िर तक यह शेरो-शायरी में ही पड़े रहे और उमराव बेगम, पिता के घर बाहुल्य के बीच पली लड़की को ससुराल में सब सुख सपने जैसे हो गए।

दुनिया मे ग़ालिब की पहचान मुग़ल दरबार के शाही मुलाज़िम की तरह नहीं बल्कि एक महान शायर के रूप में है। मिर्ज़ा ग़ालिब ने ज़्यादातर शेर और ग़ज़ले इश्क़ और समाज के ताने बाने के इर्द गिर्द लिखा लेकिन हुक़ूमत के खिलाफ़ ज़्यादा नही लिखा, चाहे मुग़ल दरबार मे हो या अंग्रेजों के यहां पेंशन पर। लेकिन उनकी लिखी शायरी और ग़ज़लों में जितनी गहराई थी उस तह तक पहुंच पाना आज के शायरों के बस की बात नही। अपनी ज़िंदगी मे हुए गुनाह को वो खुलेआम क़ुबूल करते थे।

गुनाह करके कहां जाओगे ग़ालिब
ये ज़मीं भी उसकी है, आसमां भी उसी का है।

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