मथुरा का कंस मेला शुरू: विश्वभर में फैले चतुर्वेदी समाज देखाते हैं एकजुटता, जानिए क्या है इसका इतिहास

मथुरा का कंस मेला शुरू: विश्वभर में फैले चतुर्वेदी समाज देखाते हैं एकजुटता, जानिए क्या है इसका इतिहास

मथुरा। मथुरा नगरी में जिस तरह से सभी त्योहार मनाये जाते हैं उसी तरह से चार दिवसीय कंस मेले का आयोजन शुरू हो गया है। वास्तव में यह मेला विश्वभर में फैले चतुर्वेदी समाज के लोगों का समागम करने का एक बहाना सा है। इसमें विश्वभर के चतुर्वेदी समाज के लोग सपरिवार मथुरा आते हैं और अपने बच्चों को ब्रज की संस्कृति से रूबरू कराते हैं।

 कुछ चतुर्वेदी लोग तो एक पखवारे तक मथुरा में रहकर अपने परिवार के साथ एक प्रकार से तीर्थाटन करते हैं। इस मेले में चतुर्वेदी समाज का भाईचारा देखते ही बनता है। लगभग दो दशक पहले होने वाले कंस मेले व वर्तमान कंस मेले में बहुत अधिक अंतर हो गया है अब गोचारण लीला और कंस बंध के दिन मथुरा और आसपास के जिलों से कृष्णलीला तथा अन्य देवों की लीलाओं का जीवन्त प्रस्तुतीकरण करने का प्रयास विभिन्न प्रकार की झांकियों से किया जाता है। 

ब्रजभूमि की सांस्कृतिक विरासत को सजाने और संवारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले ब्रज की विभूति शंकरलाल चतुर्वेदी ने कंस मेले के पीछे छिपे इतिहास का खुलासा करते हुए बताया कि कृष्ण बल्देव द्वारा कंस को अधमरा करने के बाद छज्जू चौबे तथा अन्य ग्वालबाल ने कंस का पूरी तरह से बध किया था। उधर माथुर चतुर्वेदी परिषद के संरक्षक महेश पाठक इस मेले को चतुर्वेद समाज की शौर्य गाथा से जोड़ते हैं। 

उन्होंने बताया कि ऐसे समय में जब कि आताताई कंस के सामने कोई खड़ा नही हो सकता था। चतुर्वेदी समाज के लोग न केवल कृष्ण के साथ खुलकर आए बल्कि उन्होंने कान्हा को कंस के वध की युक्ति भी बताई थी। गर्ग संहिता के गोलोक खण्ड के 9वें अध्याय का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि कंस की बहन देवकी के विवाह के समय हुई उस आकाशवाणी से कंस विचलित हो गया था जिसमें कहा गया था कि देवकी का आठवां पुत्र ही उसका काल बनेगा। 

इसके बाद कृष्ण को मारने के लिए कंस ने कई राक्षसों को भेजा और उनके असफल होने पर मल्ल क्रीड़ा महोत्सव अथवा धानुष महोत्सव का आयोजन किया था और राक्षसों कों कृष्ण और बलराम को मारने के लिए लगा दिया था। उन्होंने बताया कि कृष्ण ने वास्तव में कंस को अधमरा कर दिया था किंतु उन्होंने हत्या का पाप लगने से बचने एवं राधारानी द्वारा इसे अन्यथा लेने के कारण स्वयं कंस की हत्या नहीं की थी क्योंकि अरिष्टासुर राक्षस के बध के बाद राधारानी ने कृष्ण को निज महल में प्रवेश नहीं दिया था और कहा था कि उन्होंने गोवंश की हत्या की है इसलिए पापमुक्ति के लिए उनका सात तीर्थों में स्नान करना आवश्यक है। 

इसके बाद श्रीकृष्ण ने श्यामकुण्ड को प्रकट कर उसमें सभी तीर्थो के जल का आह्वान कर उसमें स्नान किया था और तभी उन्हें राधारानी के निज महल में प्रवेश मिला था। माथुर चतुर्वेद परिषद के महामंत्री राकेश तिवारी ने बताया कि जब उक्त महोत्सव में भाग लेने के लिए कृष्ण बलराम आ रहे थे तो उन्हें धोबी मिला। दोनेा भाइयों ने उसे मारकर उसके कपड़ों से अपनी नाप के कपड़े दर्जी से सिलवा लिए। 

इसके बाद उन्होंने चाड़ूर, मुष्टिक जैसे पहलवानों एवं कुबलिया पीड़ हाथी का बध किया था। उन्होंने यह भी बताया कि कंस के दरबार में छज्जू नामक चैबे रहा करते थे तथा उन्होंने ही कंस को मारने की तरकीब दोनो भाइयों को बताई थी। इस मेले के लिए लाठी की तैयारी एक महीने पहले उस पर मेंहदी और तेल लगाकर की जाती है। 

माथुर चतुर्वेद परिषद के महामंत्री राकेश तिवारी ने बताया कि कंस मेले की शुरूवात कान्हा की गोचारणलीला से होती है। विश्राम घाट पर सुबह के समय गोचारण लीला होती है और अपरान्ह कान्हा सजी सजाई गायों को लेकर गोपाल बाग पुराने बस स्टैंड तक जाते हैं उनके पीछे गाजे बाजे के साथ विभिन्न देवी देवताओं की झांकिया चलती हैं। 

शाम को कान्हा अपनी गायों के साथ गोपालबाग से चलकर विश्रामघाट तक आते हैं।अगले दिन अखिल भारतीय स्तर का कवि सम्मेलन होता है तथा तीसरे दिन चतुर्वेद समाज के लोग गिरधरवाली बगीची से कंस के पुतले को लाठियों में टांगकर कंस टीले तक जोश के साथ जाते है। उधर किसी सजी हुई गाड़ी में बैठकर कृष्ण बलराम के स्वरूप टीले के पास आते हैं। 

पहले वे हाथी पर बैठकर आते थे किंतु हाथी के प्रयोग पर प्रतिबंध लगने के बाद वे हाथी पर बैठकर नहीं आते हैं तथा कृष्ण के इशारा मिलते ही चतुर्वेद समाज के लोग कंस का बंध कर देते हैं ।चतुर्वेद समाज के लोग कंस के पुतले की पिटाई कर बहुत खुश होते हैं तथा बाद में कंस के सिर को लेकर गाते हुए वापस आते हैं कंसै मार मधुपुरी आए,

कंसा के घर के घबराए।
अगर चन्दन से आग लिपाए,
गज मोतियन के चैक पुराए ।
सब सखान संग मंगल गाए,
दाढ़ी लाए मूछउ लाए
छज्जू लाए खाट के पाये,
मारि मारि लट्ठन झूरि कर आए।

पहले कंसखार पर पुतले को रखकर उसकी जमकर पिटाई करते हैं तथा मिहारी सरदारों द्वारा दोनेा भाइयों की आरती होती है।इसमें अब परिवर्तन यह हो गया है कि कंस वध की खुशी में जहां चतुर्वेद समाज के लोग कंस के पुतले का सिर अपनी लाठियों में टांग कर लाते हैं वहीं कंस वध की खुशी में पीछे से लगभग एक दर्जन झांकिया विभिन्न जिलों से आती हैं इन झांकियों में विभिन्न देवों की लीलाओं का प्रस्तुतीकरण होता है झांकियां कंस के पुतले के पीछे छत्ता बाजार होते हुए विश्राम घाट तक जाती हैं। 

यहां पर पहले कंसे के सिर की अच्छी तरह से पिटाई होती है फिर ठाकुर जी की और यमुना महारानी की आरती होती है। उन्होंने बताया कि इसके बाद कंस की हत्या से मुक्ति के लिए चतुर्वेद समाज के लोग तीन वन यानी मथुरा, गरूड़ गोविन्द और वृन्दावन की लगभग 56 किलोमीटर लम्बी परिक्रमा करते है और शाम को पुण्य क्षेत्र विश्राम घाट पर भव्य दीपदान होता है और इसके साथ ही कंस मेले का समापन होता है। 

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