शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का निधन, 99 साल की उम्र में ली आखिरी सांस

भोपाल। मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में द्वारकापीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का निधन 99 साल की उम्र में हो गया। स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती महाराज करोड़ों सनातन हिन्दुओं की आस्था के ज्योति स्तंभ थे। जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती दो मठों (द्वारका एवं ज्योतिर्मठ) के शंकराचार्य थे। अंतिम समय में शंकराचार्य के अनुयायी और शिष्य …

भोपाल। मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में द्वारकापीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का निधन 99 साल की उम्र में हो गया। स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती महाराज करोड़ों सनातन हिन्दुओं की आस्था के ज्योति स्तंभ थे। जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती दो मठों (द्वारका एवं ज्योतिर्मठ) के शंकराचार्य थे।

अंतिम समय में शंकराचार्य के अनुयायी और शिष्य उनके समीप थे। उनके बृह्मलीन होने की सूचना के बाद आसपास के क्षेत्रों से भक्तों की भीड़ आश्रम की ओर पहुंचने लगी। झोतेश्वर धाम सूत्रों के अनुसार स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की पार्थिव देह को पालकी में रखकर आज शाम को ही झोतेश्वर धाम में दर्शनार्थ रखा जाएगा।

भक्त और अनुयायी उनके अंतिम दर्शन लाभ ले सकेंगे। अनुयायी कल यानी सोमवार को भी उनके अंतिम दर्शन कर सकेंगे। बताया गया है कि उनका अंतिम संस्कार सोमवार को ही किए जाने की संभावना है। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के भक्त देश विदेश में फैले हुए हैं। उनका जन्म राज्य के महाकौशल अंचल के ही सिवनी जिले के दिघौरी में 1924 में हुआ था।

उन्होंने मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर के परमहंसी गंगा आश्रम में ली दोपहर 3.30 बजे अंतिम सांस ली। वह लंबे समय से बीमार चल रहे थे। वह आजादी की लड़ाई में भाग लेकर जेल भी गए थे। उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए लंबी कानूनी लड़ाई भी लड़ी थी।

स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी जिले में जबलपुर के पास दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा था। महज नौ साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ धर्म की यात्रा शुरू कर दी थी।

इस दौरान वो उत्तरप्रदेश के काशी भी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली। आपको जानकर हैरानी होगी कि साल 1942 के इस दौर में वो महज 19 साल की उम्र में क्रांतिकारी साधु के रुप में प्रसिद्ध हुए थे। क्योंकि उस समय देश में अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई चल रही थी।

स्वामी स्वरूपानंद ने ली दंड दीक्षा
स्वामी स्वरूपानंद ने 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाये गए और 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली। 1950 में ज्योतिषपीठ के ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे।

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