13 जनवरी से शुरू हो रहा महाकुंभ: स्नान पर्व का होता है अपना महत्व, जानें- किन राशियों में पर्व का पड़ेगा असर
कानपुर, अमृत विचार। हमारे देश में हमेंशा से मुक्ति ही परम लक्ष्य रहा है। हमारे संस्कृति में आंतरिक विज्ञान को जितनी गहराई से समझा गया है ऐसी समझ पृथ्वी पर किसी दूसरी संस्कृति में नहीं मिलती। यही करण है कि इस देश को हमेशा से ही विश्व की ‘आध्यात्मिक राजधानी’ रूप में भी जाना जाता रहा है!
ग्रंथों के अनुसार इन संयोग में कुंभ का आयोजन होता है। बृहस्पति के कुंभ राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा के किनारे पर कुंभ का आयोजन होता है। दूसरा जब बृहस्पति के मेष राशि में प्रविष्ट होने तथा सूर्य और चंद्र के मकर राशि में होने पर अमावस्या के दिन प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर कुंभ का आयोजन होता है। तीसरा कुंभ बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में आने पर नासिक में गोदावरी के किनारे पर कुंभ का आयोजन होता है और बृहस्पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर उज्जैन में शिप्रा तट पर कुंभ का आयोजन होता है।
श्रीरामचरितमानस में प्रयागराज के महत्व का वर्णन बहुत रोचक तरीके से और विस्तारपूर्वक किया गया है-
माघ मकरगत रवि जब होई।
तीरर्थ पतिहिं आव सब कोई।।
देव दनुज किन्न्र नर श्रेनी।
सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी।।
पूजहिं माधव पद जल जाता।
परसि अछैवट हरषहिं गाता।।
भरद्वाज आश्रम अति पावन।
परम रम्य मुनिवर मन भावन।।
तहां होइ मुनि रिसय समाजा।
जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा।।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार माघ के महीने में त्रिवेणी संगम स्नान का यह रोचक प्रसंग कुंभ के समय साकार होता है। साधु-संत प्रातःकाल संगम पर स्नान करके कथा कहते हुए ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों और तत्वों की विस्तार से चर्चा करते हैं।
(आचार्य पवन तिवारी)
कुंभ भारतीय संस्कृति का महापर्व है और इस पर्व पर स्नान, दान, ज्ञान मंथन के साथ ही अमृत प्राप्ति की बात भी कही गई है। कुंभ का बौद्धिक पौराणिक ज्योतिषी के साथ-साथ वैज्ञानिक आधार भी है। इसका वर्णन भारतीय संस्कृति के आदि ग्रंथ वेदों में भी मिलता है।
प्रयागराज की महत्ता वेदों और पुराणों में विस्तार से बताई गई है। एक बार शेषनाग से ऋषिवर ने भी यही प्रश्न किया था कि प्रयागराज को तीर्थराज क्यों कहा जाता है? इस पर शेषनाग ने उत्तर दिया कि एक ऐसा अवसर आया, जब सभी तीर्थों की श्रेष्ठता की तुलना की जाने लगी, उस समय भारत में समस्त तीर्थों को तुला के एक पलड़े पर रखा गया और प्रयागराज को दूसरे पलड़े पर, फिर भी प्रयागराज का पलड़ा भारी पड़ गया। दूसरी बार सप्तपुरियों को एक पलड़े में रखा गया और प्रयागराज को दूसरे पलड़े पर, वहां भी प्रयागराज वाला पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार प्रयागराज की प्रधानता होने से इसे तीर्थों का राजा कहा जाने लगा। इस पावन क्षेत्र में दान, पुण्य, कर्म, यज्ञ आदि के साथ-साथ त्रिवेणी संगम का अति महत्व है।
रामायण के अनुसार यह संपूर्ण विश्व का एकमात्र स्थान है जहां पर तीन-तीन नदियां गंगा, यमुना, सरस्वती मिलती हैं, यहीं से अन्य नदियों का अस्तित्व समाप्त होकर आगे एकमात्र नदी गंगा का महत्व शेष रह जाता है। इस भूमि पर स्वयं ब्रह्माजी ने यज्ञ आदि कार्य संपन्न कर ऋषि और देवताओं ने त्रिवेणी संगम में स्नान कर अपने आपको धन्य माना। मत्स्य पुराण के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने एक बार मार्केंडय जी से पूछा, ऋषिवर यह बताएं कि प्रयागराज क्यों जाना चाहिए और वहां संगम स्नान का क्या फल है? इस पर मार्केंडय जी ने उन्हें बताया कि प्रयागराज के प्रतिष्ठानपुर से लेकर वासुकी के हृदयोपरिपर्यंत कंबल और अश्वतर दो भाग हैं और बहुमूलक नाग है। यही प्रजापति का क्षेत्र है जो तीनों लोकों में विख्यात है।
यहां पर स्नान करने वाले विभिन्न दिव्यलोक को प्राप्त करते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। पद्म पुराण कहता है कि यह यज्ञ भूमि है, देवताओं द्वारा सम्मानित इस भूमि में यदि थोड़ा भी दान किया जाता है तो उसका अनंत फल प्राप्त होता है। प्रयागराज की श्रेष्ठता के संबंध में यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार ग्रहों में सूर्य और नक्षत्रों में चंद्रमा शेष होता है उसी तरह तीर्थों में प्रयागराज सर्वोत्तम तीर्थ है।
पुराणों में कुंभ की अनेक कथाएं मिलती हैं, भारतीय जनमानस में तीन कथाओं का विशेष महत्व कुंभ पर्व के संदर्भ में पुराणों में तीन अलग-अलग कथाएं मिलती हैं। प्रथम कथा के अनुसार कश्यप ऋषि का विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री दिति और अदिति के साथ हुआ था। अदिति से देवों की उत्पत्ति हुई तथा दिति से दैत्य पैदा हुए। एक ही पिता की संतान होने के कारण दोनों ने एक बार संकल्प लिया कि वे समुद्र में छिपी हुई बहुत सी विभूतियों एवं संपत्तियों को प्राप्त कर उसका उपयोग करें।
संस्थापक अध्यक्ष ज्योतिष सेवा संस्थान के आचार्य पवन तिवारी बतातें है कि इस प्रकार समुद्र मंथन एकमात्र उपाय था। समुद्र मंथन उपरांत 14 रत्न प्राप्त हुए, जिनमें से एक अमृत कलश भी था, इस अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध छिड़ गया, क्योंकि उसे पीकर दोनों अमृत की प्राप्ति करना चाह रहे थे। स्थिति बिगड़ते देख देवराज इंद्र ने अपने पुत्र जयंत को संकेत किया और जयंत अमृत कलश लेकर भाग चला। इस पर देवों ने उसका पीछा किया, पीछा करने पर देवताओं और दैत्यों के बीच 12 दिनों तक भयंकर संघर्ष के दौरान अमृत कुंभ को सुरक्षित रखने में बृहस्पति सूर्य और चंद्रमा ने बड़ी सहायता की और उनके हाथों में जाने से कुंभ को बचाया।
सूर्य भगवान ने कुंभ की फूटने से रक्षा की और चंद्रमा ने अमृत छलकने नहीं दिया, फिर भी संग्राम के दौरान मची उथल-पुथल से अमृत कुंभ से चार बूंदें छलक की गईं, यह अलग-अलग चार स्थानों पर गिरीं, इनमें से एक गंगा तट हरिद्वार में, दूसरी त्रिवेणी संगम प्रयागराज में, तीसरी क्षिप्रा तट उज्जैन में और चौथी गोदावरी तट नासिक में। इस प्रकार इन चारों स्थानों पर अमृत प्राप्ति की कामना से कुंभ पर्व मनाया जाने लगा।
कुंभ की कथाओं के अनुसार देवता और व्यक्तियों में 12 दिनों तक जो संघर्ष चला था उस दौरान अमृत कुंभ से अमृत की बूंदें जिन स्थानों पर गिरी थीं, वहां-वहां कुंभ मेला लगता है, क्योंकि देवों के इन 12 दिनों को 12 मानवी वर्षों के बराबर माना गया है। इसलिए कुंभ पर्व का आयोजन 12 वर्षों पर होता है। जिस दिन अमृत कुंभ गिरने वाली राशि पर सूर्य चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग हो, उस समय पृथ्वी पर कुंभ होता है। राशि विशेष में सूर्य और चंद्रमा के स्थित होने पर उक्त चारों स्थानों पर शुभ प्रभाव के रूप में अमृत वर्षा होती है और यही वर्षा श्रद्धालुओं के लिए पुण्यदायी मानी गई है।
इस प्रकार से वृष के गुरु में प्रयागराज, कुंभ के गुरु में हरिद्वार, तुला के गुरु में उज्जैन और कर्क के गुरु में नासिक का कुंभ होता है। सूर्य की स्थिति के अनुसार कुंभ पर्व की तिथियां निश्चित होती हैं। मगर शुरू में प्रयागराज, मेष के सूर्य में हरिद्वार, तुला के सूर्य में उज्जैन और कर्क के सूर्य में नासिक का कुंभ पर्व पड़ता है। अथर्व वेद के अनुसार मनुष्य को सर्व सुख देने वाला पर्व है कुंभ। कुंभ में स्नान पर्व का भी अपना महत्व होता है।
संक्रांति के पूर्व और बाद की 16 घड़ियों में पुण्यकाल माना गया है। मुहूर्त तिथि आधी रात से पहले हो तो पहले दिन तीसरे पहर में पुण्यकाल बताया गया है और यदि मुहूर्त तिथि आधी रात के बाद हो तो पुण्यकाल प्रातःकाल माना जाता है।
इसके अलावा मकर संक्रांति का पुण्यकाल 40 घड़ी, कर्क संक्रांति का पुण्यकाल 30 घड़ी और तुला एवं मेष का संक्रांति का पुण्यकाल 20-20 घड़ी पहले और बाद में बताया गया है। प्रयाग में माघ के महीने में विशेष रूप से कुंभ के अवसर पर गंगा, यमुना एवं अदृश्य सरस्वती के संगम में स्नान का बहुत ही महत्व बताया गया है। अनेक पुराणों में इसके प्रमाण भी मिलते हैं।