हल्द्वानी: गढ़वाल की संस्कृति और इतिहास का अद्भुत संगम, भैलो खेल और दीपों से सजा पर्व है इगास
हल्द्वानी, अमृत विचार। देशभर में दिवाली का उल्लास भले ही थम चुका हो, लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी दीपों का यह त्योहार अपनी पूरी छटा के साथ मनाया जा रहा है। खासकर गढ़वाल क्षेत्र के गांवों में, जहां 11वें दिन मनाया जाने वाला इगास त्योहार धूमधाम से मनाया जा रहा है। यह पर्व पर्वतीय समाज की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को संजोने का अवसर बन चुका है, और अब इसे मनाने के लिए प्रवासी भी अपने गांव लौट रहे हैं।
इगास का इतिहास बहुत ही दिलचस्प और ऐतिहासिक है। बताया जाता है कि 17वीं शताबदी में वीर भड़ माधो सिंह भंडारी जब तिब्बत के युद्ध पर गए थे, तो वह दिवाली तक घर नहीं लौट पाए थे, जिससे पर्वतीय क्षेत्रों में दीपावली का त्योहार नहीं मनाया गया। लेकिन जब वे 11वें दिन युद्ध जीतकर घर लौटे, तो गांववालों ने उनकी जीत की खुशी में दीप जलाए और एक नए उत्सव की शुरुआत की। तभी से यह परंपरा बन गई कि गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र में दीपोत्सव के 11वें दिन इगास मनाया जाता है।
प्रवासी गांव लौट रहे हैं, इगास से जुड़ने की नई लहर
इगास की लोकप्रियता इस साल और बढ़ी है, क्योंकि कई प्रवासी अब इस त्योहार को मनाने के लिए अपने गांव लौट रहे हैं। विशेषकर वह लोग जो शहरों में काम कर रहे हैं या अन्य राज्यों में बसे हुए हैं, वे इस दिन के महत्व को समझते हुए अपने पैतृक गांव लौट रहे हैं। यह एक तरह से पर्वतीय संस्कृति और अपनी जड़ों से जुड़ने का महत्वपूर्ण अवसर बन गया है। गढ़वाल और कुमाऊं के लोग अब इस दिन अपने परिवारों के साथ समय बिताने के लिए अपने घर लौट रहे हैं, जिससे यह त्योहार न केवल पारंपरिक धरोहर को जीवित रखता है, बल्कि गांवों में खुशियों का माहौल भी बना रहता है।
इगास और भैलो का पारंपरिक उल्लास
इगास के दिन का एक अहम हिस्सा होता है भैलो खेल। इस खेल में युवक और युवा महिलाएं पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुनों पर गांवभर में घूमते हैं और एक साथ गाते-बजाते हैं। भैलो को बिना खेले त्योहार अधूरा माना जाता है। टिहरी जिले के कई हिस्सों में इसे भैला बग्वाल के नाम से भी जाना जाता है, जहां हर घर में विशेष पकवान बनाए जाते हैं और दीप जलाए जाते हैं। यह खेल न केवल खुशी का प्रतीक है, बल्कि पर्वतीय संस्कृति और जीवनशैली का भी अभिन्न हिस्सा है।
लोक संगीत और लोक साधक शिवजनी का योगदान
इगास के उत्सव में लोक संगीत का भी अहम स्थान है। प्रख्यात लोक साधक और गायक *शिवजनी* माधो सिंह भंडारी का योगदान इस त्योहार के संगीत पक्ष को और भी समृद्ध करता है। 1960-70 के दशक में उन्होंने वीर भड़ माधो सिंह भंडारी से संबंधित लोक गीतों को संकलित किया, जो आज भी इगास के पर्व पर गाए जाते हैं। शिवजनी ने केदार नृत्य को देशभर में प्रस्तुत किया, जिससे पर्वतीय संगीत को राष्ट्रीय पहचान मिली।
इगास: संस्कृति और पहचान की पुनः प्राप्ति
इगास सिर्फ एक त्योहार नहीं है, बल्कि यह पर्वतीय लोगों की अपनी संस्कृति और पहचान को पुनः जीवित करने का अवसर है। पर्वतीय क्षेत्रों में जहां अधिकांश लोग खेती-बाड़ी और पारंपरिक कामकाज में व्यस्त रहते हैं, इगास के दौरान उन्हें एक साथ आने, मिलजुल कर खुशी मनाने और अपने अतीत से जुड़ने का मौका मिलता है। यह पर्व एक नई लहर की शुरुआत कर रहा है, जिसमें प्रवासी पर्वतीय लोग अपनी जड़ों से जुड़ने और अपने घर लौटने की उम्मीदें लेकर वापस आते हैं।
नए उत्साह के साथ मनाया जा रहा इगास
इस साल इगास की धूम पहले से कहीं अधिक है। पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी दीप जलाए जा रहे हैं, घर-घर पूजा और भैलो खेल हो रहे हैं, और लोग एकजुट होकर इस दिन को यादगार बना रहे हैं। इगास के इस पर्व के साथ पर्वतीय संस्कृति की रौनक भी बढ़ रही है, और यह एक ऐसा त्योहार बन गया है जो न केवल पारंपरिक धरोहर को संजोता है, बल्कि प्रवासियों के दिलों को भी अपने गांवों से जोड़ता है।यह त्योहार न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह गढ़वाल और कुमाऊं के पहाड़ों की आत्मा का प्रतीक है, जिसे आगामी पीढ़ियों तक जीवित रखा जाएगा।
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