हल्द्वानी: हमारी जिंदगी तो मटमैली हो गई है 'रंग' तो अब बस 'यादों' में है...

भूपेश कन्नौजिया, हल्द्वानी। समय कब क्या करवट ले किसी को नहीं पता...जब आपका वक्त अच्छा होता है तो सब आपके होते हैं और फिर ये दुनिया तो है ही पैसे की पुजारी...यहां तो रिश्ते नाते आपके पैसे और प्रापर्टी पर ही टिके हैं जरा सी परेशानी क्या आई सब पराए हो जाते हैं। इस दुनिया पर क्या इलजाम लगाएं अपने ही मुंह फेर लेते हैं जब आप किसी लायक नहीं रहते...
यह कहना है उन बुजुर्गों का जो कब अपना शरीर छोड़ दें कुछ कहा नहीं जा सकता। होली क्या इनके सारे त्योहार मानों फीके से हैं लेकिन वो कहते हैं न जब एक जैसे मतवाले एक जगह मिल जाते हैं तो अपना दुख दर्द भूल वो आगे की जिंदगी को बेहतर बनाने की सोचते हैं और अपने गमों को भुला वे हर रंग में रंगने को तैयार रहते हैं..
शहर के वृद्धाश्रमों में रह रहे बुजुर्गों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, किसी की मानसिक स्थिति ठीक नहीं तो कोई इस कदर टूट चुका है कि उसे अब ऊपर वाले पर भी भरोसा नहीं...होली के इस त्योहार पर जहां चारों और हो-हल्ला और पकवानों की खुशबू से गलियां सरोबार हैं वहीं एक तबका ऐसा भी है जो यादों के सहारे घुट-घुट कर जीने को मजबूर है।
हालांकि वृद्धाश्रम में रहते हुए ये बुजुर्ग एक दूसरे के साथ होली गा रहे हैं, थिरक रहे हैं पर दर्द है कि कमबख्त आंखों में छलक ही आता है। ऐसी कुछ लोगों ने अपना दर्द साझा किया है जो आश्रय सेवा समिति में होली मना और दर्द को भुला देना चाहते हैं।
सरस्वती दरम्वाल
22 साल हो गए विधवा हुए, बेटी है पर सुध नहीं लेती, नाती-पोतों को देखने का मन करता है पर शायद उन्हें पता भी नहीं कि उनकी दादी और नानी जिंदा हैं। आज मेरा भाई जिंदा होता तो शायद ये दशा न होती मेरी, मैं तो बीना ढ़ोल के नाचती थी, गांव-गांव होली में टोली बनाकर घूमते थे,पकवानों का आनंद लेते थे पर अब सब शून्य सा है, पुरानी यादों को अब याद करने से कोई फायदा नहीं जो दिन कट जाएं वहीं अच्छे। एक साल हो गया वृद्धाश्रम में अब यही मेरा परिवार है।
पुष्पा पंत - छह माह बीत गए आश्रम में, पति के मृत्यु के बाद मेरा कोई नहीं एक बेटी है पर उससे भी कोई शिकायत नहीं। तीज त्योहारों पर घर की याद आती है पर अब क्या फायदा, मन तो बहुत करता है कूदने-फांदने, हंसने-मुस्कुराने का, होली की ठिठोली बहुत याद आती है। महिलाएं स्वांग रचती थी जो मुझे बहुत पसंद था पर अब वो सब खुशी में आश्रम में ही ढूंढती हूं, बस कोई बच्चा लालच में इतना क्रूर न बने कि हाथ पकड़ अपने मां-बाप को आश्रम छोड़ आए यही मेरी दुआ है।
शीला - मरघट की सन्यासी बन गई मैं..पतिऔर पांच बच्चे मर गए हों जिसके वो और क्या करती...सन् 1987 में घर छोड़ दिया था श्मशान मेरा घर बना पर वहां भी मैंने जितना पाया सब खो दिया, कितने वसंत, कितने त्योहार आए गए पर जिंदगी में कुछ अच्छे पलों की याद नहीं अब जब वृद्धाश्रम हूं यही पल सब से तनाव मुक्त और खुशी के हैं। किसी बात की कोई फिक्र नहीं है बस ऊपर वाले पर भरोसा बहुत है, लोगों से होली के मौके पर यही कहना चाहूंगी कि रे पगले इंसान तू इंसानियत मत खो जिसका जमीर जिंदा उसकी हस्ती जिंदा वरना सिर्फ फंदा...
- गिरीश कुमार
80 साल का हूं..साल भर हो गया आश्रम में, मेरे में ही कुछ कमी थी शायद जो मेरी अपने परिवारिकजनों से नहीं बनी, दिल्ली एंबेसी में नौकरी करता था, रिटायर होने के बाद आया तो भतीजों ने साथ रखने से मना कर दिया। शादी के नौ माह बाद ही पत्नी दूसरी दुनिया चली गई, चार भाई थे अब कोई नहीं बचा मुझे छोड़कर..नैनीताल मेरा घर था, बर्फ में भी होली खेला करते थे। अतीत में क्या रखा है आने वाला कल अब यहीं है आपस में दिल बहला लेते हैं पौधों-पशुओं की सेवा कर दिन निकल जाता है व्यर्थ सोचने में क्या फायदा बस परिवार में सौहार्द जरूरी है वही परम आनंद है और हर दिन त्योहार है।