क्या है आदिवासियों की लोकसंस्कृति

क्या है आदिवासियों की लोकसंस्कृति

काल क्या है ? इस सवाल को लेकर भिन्न-भिन्न सिद्धान्त हैं ! एक सिद्धान्त यह भी है कि घटना की पूर्वापरता का नाम ही काल है , इसके अतिरिक्त काल नाम का कोई भी स्वतन्त्र तत्त्व है ही नहीं ! फ़िर भी मानव-सभ्यता में व्यावहारिक रूप से काल का विभाजन भूत-वर्तमान-भविष्य के रूप में किया …

काल क्या है ? इस सवाल को लेकर भिन्न-भिन्न सिद्धान्त हैं !
एक सिद्धान्त यह भी है कि घटना की पूर्वापरता का नाम ही काल है , इसके अतिरिक्त काल नाम का कोई भी स्वतन्त्र तत्त्व है ही नहीं !
फ़िर भी मानव-सभ्यता में व्यावहारिक रूप से काल का विभाजन भूत-वर्तमान-भविष्य के रूप में किया ही जाता है ! कुछ विचारक कहते हैं भूत-वर्तमान-भविष्य के रूप में किया गया विभाजन काल्पनिक है ! वे मानते हैं कि काल अविभाज्य और अखंड है , व्यावहारिक-रूप में भी भूत-वर्तमान-भविष्य युगपत्‌ उपस्थित रहते हैं !

आधुनिक-सभ्यता ने किस सीमा तक भविष्य को छूने का प्रयास किया है , एक ओर वह चित्र हम देख सकते हैं या कल्पना कर सकते हैं तो दूसरी ओर सभ्यता का वह चित्र भी हमारे सामने है , जिसे हम आदिवासी-जीवन के रूप में देखते हैं ! आप आदिवासी जीवन को अपने से भिन्न मानें तो यह आपकी इच्छा और आपकी दृष्टि और यदि यह मान कर चलें कि यह हमारा अपना ही अतीत है ! मनुष्य-जीवन का अतीत , जो हमारे सामने वर्तमान है ! मानव-शास्त्रियों ने मनुष्य-जीवन को समझने के लिए आदिवासी-जीवन का अध्ययन प्रारंभ किया था , जिसका निरन्तर विकास हो रहा है ! सभ्यता के कितने सोपान हैं ?

लेकिन मनुष्य मनुष्य ही है और आदिवासियों को भी मनुष्य के रूप में ही पहचाना जा सकता है ! संसार के विभिन्न देशों की तरह भारत में भी आदिवासियों का बहुत विस्तार है और अध्येताओं ने उनका वर्गीकरण भी किया है !१-पूर्वोत्तर-अंचल के आदिवासी ::लेपचा ,मिकिर ,नागा , खासी ,गारो ,कूकी आदि २- केन्द्रीय -अंचल के आदिवासी ::संथाल , ओराँव , जुआंग , बैगा , गौंड , भील आदि तथा ३- दक्षिणी-अंचल के आदिवासी टोडा चेंचु कडार बडागा आदि , इनमें ही केरल की इरुलार इरुवल्ला इल्लिगा मुदुगार कुरुम्बा आदिवासी जातियाँ द्रविड़ जातियाँ हैं ! वन्य संस्कृति या जंगल पर आधारित जीवन ! इनको हम लोग , जो अपने को सभ्य मानते हैं प्राय: अशिक्षित ,गरीब अंधविश्वासी रूढिवादी कह देते हैं ! एक जमाना था , जब हमारे गोरे -राजा हम सभी भारत-वासियों को इन्हीं विशेषणों और उपाधियों से विभूषित किया करते थे , अस्तु , अब वह बात बीत गयी है ! आज बात आदिवासियों की करनी है !

नारी की प्रधानता
आदिवासी -संस्कृति के अध्येताओं ने एक तथ्य को देखा है कि आदिवासी संस्कृतियों में नारी की प्रधानता होती है , वे मानते हैं कि नारी और प्रकृति एक ही तत्त्व है ! जंगल और प्रकृति उनकी माँ है ! समुद्र देवी का रूप है , हवा और बादल भी दिव्य हैं ! उनके लोकनृत्य प्रकृति और जीवन की एकता की अवधारणा पर ही आधारित हैं ! वे मानते हैं कि वृक्ष दिव्य शक्ति हैं ! वे मानते हैं कि धरती , पर्वत , नदी , झरने , वृक्ष ,पशु तथा समूची प्रकृति दिव्यशक्तियों से परिपूर्ण है तथा उनको बेचना ईश्वर को बेचने जैसा है ! भूमि के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा होती है ! उनके सामूहिक अनुष्ठान होते हैं ! खेती का प्रत्येक कार्य [ जोतना-बोना ] उनके लिए समारोह जैसा होता है ! जंगल उनके लिए दिव्य है , वह किसी की भी निजी संपत्ति नहीं हो सकती और उसका विनाश उनके लिए मनुष्य के साथ अन्याय ही नहीं भगवान के अपराध जैसा है , इसलिए वे उस विकास की अवधारणा को स्वीकार नहीं कर पाते ! उनका जीवन आवश्यकता पर आधारित है , लालच या तृष्णा पर नहीं ! इसलिए वे मनी-माइंडेड नहीं हैं ! इसीलिए वे प्रतिदिन कमाई के लिए नहीं निकलते , वे तभी निकलते हैं , जब उनको आवश्यकता होती है !

आनन्द और नृत्य
प्रकृति का सहज साहचर्य , आनन्द और नृत्य उनका जीवन है ! उनके पास लिखित साहित्य नहीं है ! लेकिन वाचिक-परंपरा से उन्होंने सामाजिक विवेक की धरोहर को सँजो कर रक्खा है ! चेतना और आत्मा में वे भरोसा करते हैं ! रोग- मातृका की पूजा करते हैं ! मृत्यु के समय भी वे नृत्य करते हैं क्य़ोंकि यह भी भगवान की लीला है ! सभ्यता के सोपान भिन्न हैं लेकिन मनुष्य मनुष्य है ! सोचिये कि आज मनुष्य ही मनुष्य की समस्या बन चुका है ! आधुनिक सभ्यता के लिए आदिवासी समस्या है और आदिवासी के लिए सभ्यता और विकास समस्या है ! हम उनको मनुष्य नहीं मानते , उनकी भाषा को भाषा नहीं मानते , उनकी कला को कला नहीं मानते ! हाँ , जहाँ दाव लग जाता है , उनका शोषण करते हैं , उनके जंगल और प्राकृतिक-संसाधन छीनना विकास का सहज स्वभाव है ! विकास की इस अवधारणा का केन्द्रीय तत्त्व तृष्णा या लालच है ! इसीके कारण आधुनिक-जीवन मृत्यु-पर्यन्त उसी हवस , उसी ईर्ष्या-द्वेष से जकड़ चुका है ! आधुनिक-जीवन प्रकृति के सहज साहचर्य , आनन्द और नृत्य से कितनी दूर आ चुका है ? प्राकृतिक-पर्यावरण को नष्ट करके हमने कोरोना जैसी विभीषिकाओं को आमन्त्रित किया है !

  •  राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

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