बरेली: आज सजेगा अमृत विचार का मंच, शायरी के बेताज बादशाह हैं, कलम के जादूगर प्रोफेसर वसीम बरेलवी

बरेली: आज सजेगा अमृत विचार का मंच, शायरी के बेताज बादशाह हैं, कलम के जादूगर प्रोफेसर वसीम बरेलवी

बरेली, अमृत विचार। दुनिया में शायरी का पर्याय प्रख्यात शायर प्रोफेसर वसीम बरेलवी शायरी के बेताज बादशाह और कलम के जादूगर हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में उर्दू के भारी भरकम लफ़्ज़ों का बहुत अधिक प्रयोग नहीं किया बल्कि मौजूदा समय की समस्याओं पर बड़े सहज और सरल ढंग से लिखा है। यही कारण है कि …

बरेली, अमृत विचार। दुनिया में शायरी का पर्याय प्रख्यात शायर प्रोफेसर वसीम बरेलवी शायरी के बेताज बादशाह और कलम के जादूगर हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में उर्दू के भारी भरकम लफ़्ज़ों का बहुत अधिक प्रयोग नहीं किया बल्कि मौजूदा समय की समस्याओं पर बड़े सहज और सरल ढंग से लिखा है। यही कारण है कि उनके शेर लोग आम बातचीत में अक्सर कोट करते हुए सुनते रहते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी अपनी कलम चलाई। राष्ट्रीय एकता के साथ ही युवाओं के साथ ही नारी शक्ति और गांव-गरीब किसान तक की समस्याओं को उन्होंने अपनी आवाज बनाया।

दुनिया में शायरी की पहचान 82 वर्षीय प्रोफेसर वसीम बरेलवी शहर के गढ़ैया मोहल्ले में रहते हैं। शायर वसीम बरेलवी कहते हैं, नफरतों को केवल मोहब्बत से जीता जा सकता है। हिंदुस्तान की सरजमीं ऐसी है कि यह ज्यादा दिनों तक नफरत बर्दाश्त ही नहीं कर सकती। समाज में इस समय जितनी भी कड़वाहट है, उसका केवल एक इलाज है-मोहब्बत।  हम कलम के सिपाही मोहब्बत के पैरोकार हैं। मैंने कौमी एकता को जिया नहीं बल्कि अपनी आत्मा में उतारा है।

वे अपना ही एक शेर सुनाते हैं, ‘वो मेरे चेहरे तक अपनी नफरतें लाया तो था…मैंने उसके हाथ चूमे और बेबस कर दिया…। देश व प्रदेश में फैले कटुता के माहौल से दुखी वसीम बरेलवी कहते हैं, टकराव से आपका घर नहीं चलता है तो यह समाज कैसे चलेगा? इस टकराव को सद्भाव में बदलना होगा। प्रस्तुत है उनसे कई मुद्दों पर हुई बातचीत के अंश…।

नई नस्ल को संदेश: चरित्र निर्माण अभियान में जुटें
पूरी दुनिया में अपनी शायरी से प्रेरणादायी संदेश दे चुके प्रो. वसीम बरेलवी युवाओं में भी बेहद लोकप्रिय हैं। युवाओं को जागरूक करने के लिए वह देश के तकरीबन 6-7 आईआईटी में जा चुके हैं और वहां उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर चुके हैं। उनका कहना है कि नई नस्ल के हाथों में हिंदुस्तान का भविष्य है। सदियों की परंपरा-संस्कार हमारे पास हैं। तहजीब हमारे पास है। देश में आज नई नस्ल को चरित्र निर्माण अभियान चलाने की जरूरत है। इस अभियान में युवा अच्छी भूमिका निभा सकते हैं।

अगर घरों से ही इस अभियान की शुरूआत की तो इंकलाब आ सकता है। वे कहते हैं- नई नस्ल इस बात को समझ ले, अगर चरित्र निर्माण अभियान को घरों से शुरू किया तो बड़ा बदलाव आएगा। बेटा पिता से पूछे यह इतना खर्चा क्यों हो रहा है, बेटियां मां से पूछ लें। लाखों करोड़ों के घोटाले देश को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इसको बचाने के लिए युवा प्रण ले लें- भ्रष्टाचार नहीं होने देंगे। नौजवान हिंदुस्तान का मुकद्दर बदल सकते हैं और भविष्य बना सकते हैं।

विचारों के स्तर पर विश्व गुरु हुआ भारत
प्रो. वसीम बरेली कहते हैं कि हमारे देश में कविता-शायरी समाज में रचे बसे हैं, समाज के बिखरने का सवाल ही नहीं है। हमारे देश की यह परंपरा रही है कि अगर आपके पास कला है तो बादशाह फकीरों के यहां भी जाते थे। विचारों के स्तर पर ही हमारा देश विश्व गुरु बना। इतना बड़ा सोचने का भंडार किसी के पास नहीं है।

जब जज्बा उभरकर शब्दों का लिबास पहनने लगे तो बन जाते हैं शायर
प्रोफेसर वसीम बरेलवी के पिता शाहिद हसन मुरादाबाद के जाने माने शायर थे और नसीम मुरादाबादी उपनाम से शायरी किया करते थे। इस लिहाज से यह कह सकते हैं कि वसीम साहब को शायरी विरासत में मिली। लेकिन इस बारे में वसीम साहब कहते हैं कि- मैंने 8-10 वर्ष की उम्र से शायरी शुरू कर दी। 17-18 साल की उम्र तक मंच साझा करने लगा। फिर ननिहाल बरेली में आकर रहने लगा, इसीलिए अपना उपनाम बरेलवी रखा। मुझे शायरी विरासत में मिली यह तो कह ही सकते हैं।

वहीं उनका मानना है कि जब जज्बा उभरकर शब्दों का लिबास पहनने लगे तो आप शायर हो जाते हैं। यह कुदरती और पढ़ने-लिखने से होता है। हमारे वालिद शायर थे जिगर मुरादाबादी, रईस अमरोहवी की घर पर बैठकें होती थीं, कहीं न कहीं वो सोहबत मेरे अंदर आई। बुजुर्गों की बैठकों में बैठकर सोहबतों में बच्चे सीखते थे। कुछ गलत होता तो ये डांटते फटकारते भी थे। मौजूदा हालत बदल चुके हैं। एक घर में अगर तीन लोग हैं तो तीनों के हाथ में मोबाइल होता है। रिश्तों को तार तार कर रहा है मोबाइल। इसके इस्तेमाल के मायने बदलने होंगे।

अमेरिका ताजमहल जैसा, इसे देखा जा सकता है इसके भीतर रहा नहीं जा सकता
प्रोफेसर वसीम बरेलवी 1990 के दशक में अमेरिका का एक संस्मरण सुनाते हुए कहते हैं कि एशिया टीवी न्यूयार्क पर उन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। लाइव इंटरव्यू था। एंकर ने उनसे पूछा- अमेरिका कैसा लगा। उन्होंने जबाव दिया- यह तरक्की वाला मुल्क है, पूरी दुनिया के लोग इसे देखते हैं, लोग यहां आना चाहते हैं। मेरे हिसाब से अमेरिका एक ताजमहल है, इसे देखा जा सकता है, इसके भीतर रहा नहीं जा सकता। क्योंकि हमारे साथ जिंदगी की लहर है- जोकि बरसात की पहली बूंदों के गिरने से मिट्टी की महक उठती है, वो महक कहीं नहीं पाई जा सकती।

कहते हैं कि तमाम लोगों ने प्रस्ताव रखा अमेरिका में रहें यहीं बसें, लेकिन वहां सन्नाटे के अलावा कुछ नहीं है। जब हमने वो अपनी गली नहीं छोड़ी तो देश कैसे छोड़ दें। वसीम साहब देश में कटुताएं बढ़ने और मेलजोल का जरिया खत्म सा होते जाने पर बेहद निराश दिखे- कहा कि मेलजोल का सामाजिक दायरा बहुत जरूरी है। वह अपनी इस गजल जिसे स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने भी रिकार्ड किया है पढ़ते हुए कहते हैं

मिली हवाओं में उड़ने की वो सजा यारो,
कि मैं जमीन के रिश्तों से कट गया यारो…।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का शायर होने के बावजूद भी वसीम बरेलवी को अपने गांव की मिट्टी की महक सुहाती है। उसमें वे भोलापन और अलबेलापन महसूस करते हैं –

मेरे गांव की मिट्टी तेरी महक बड़ी अलबेली
तेरा भोलापन दुनियां की सबसे बड़ी पहेली
तेरे आंगन में उतरे हैं सच्चे मौसम
तू अपने सीधे-सादे रंगों से भारी-भरकम
तेरे सामने क्या लगते हैं बेला जूही चमेली
तेरी महक बड़ी अलबेली
भोर भये फसलें अंगडाई ले जागे खलिहान
खेतों में सूरज उतरे तो किरनें लगे किसान
तू सदियों से एक ही जैसी फिर भी नयी-नवेली
तेरी महक बड़ी अलबेली।

इस प्रकार वसीम बरेलवी के गीतों में कथ्य की दृष्टि से जहां मिलन और विरह की अनुभूतियां हैं, अध्यात्म है, दर्शन है, जीवन के तथ्य हैं, विसंगतियां हैं, देश की माटी से प्यार है वहीं इन गीतों में कलात्मकता, भाषा की सरलता, सहजता तथा लोकभाषा के देशज शब्दों का प्रयोग उन्हें लोकप्रियता की चरम सीमा प्रदान करते हैं।

फिल्मकार उद्देश्य से भटके हुए हैं। आश्चर्यजनक है फिल्मों में गीत, गजल का कम होना। कहीं न कहीं कमी जरूर आई है। जो फिल्मों के जरिये संदेश मिलता था वह संदेश अब नहीं मिल रहा। फिल्में जिंदगी के रास्ते दिखाती थीं, और गीत-गानों के हिसाब से हिट होती थीं। बरसों बरस फिल्मों के सीन याद रखे जाते थे। जिस तरह फिल्मों से गीत और गजल गायब हो रहे हैं, उसी तरह लोगों का रस भी तो गायब हो गया है। तहजीब, संस्कारों से इंसान दूर जा रहा है। तहजीब और संस्कारों को साहित्य यानी गीत-गजल और कविता-शायरी ही लौटा सकते हैं।

सोशल मीडिया पर शायरी-कविता, गीत और गजल जमकर सराही जा रही हैं। हम लंबा समय मंच पर गुजार चुके हैं। ऐसा हमने कभी नहीं देखा, जैसा अब देख रहे हैं। मंच से शायरी करके आते हैं तो बड़ी तादात में युवा सेल्फी लेते हैं। हर किसी की चाहत रहती है कि एक फोटो साथ हो जाए, ऐसा पहले कहां था।

सोशल मीडिया ने ऐसे शायरों को खोज निकाला है जोकि देश में पैदा हुए पाकिस्तान चले गए, लेकिन उनके दिल में अपनी सरजमीं के लिए प्यार मरते दम तक रहा। इन्हीं में से एक जॉन एलिया हैं जोकि अमरोहा के रहने वाले थे। मशहूर शायर जॉन एलिया ने मेरे साथ कई मंच साझा किए। एक बार जब वो अमरोहा आए तो ट्रेन से उतरते ही जमीन पर लेट गए और तब तक लेटे रहे जब तक वहां की जमीन को अपने आंसुओं से तर कर दिया।

अमृत विचार का जताया आभार
प्रोफेसर वसीम बरेलवी ने कहा कि ऐसा मौका तकरीबन 50 वर्ष बाद आया है जब अमृत विचार जश्ने वसीम बरेलवी के नाम से ऐसा भव्य कार्यक्रम कर रहा है। पचास साल पहले 6 फरवरी 1972 को ऐसा ही एक जश्ने वसीम बरेलवी एक साहित्यक सोसाइटी ने किया था। मैं तकरीबन 32 का था। मेरे सम्मान में आयोजन हुआ जिसमें फिराक गोरखपुरी सहित देशभर के जाने माने कवि-शायर आए थे।

सेना के अफसर भी मौजूद थे। गायक महेंद्र कपूर आए थे, उनकी आवाज में मेरी दो गजलें गायी गईं। तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा भी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर मौजूद रहे थे। अमृत विचार ने जश्ने वसीम बरेलवी आयोजित करके उस कार्यक्रम की याद दिला दी है। यह जश्न भी यादगार आयोजन साबित होगा।

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