रायबरेली: ऊंचाहार में जादुई चावल का उत्पादन, पानी में डालते ही पक जाएगा

रायबरेली। जिले के ऊंचाहार क्षेत्र के बरसवां गांव के उन्नतशील किसान राम गोपाल सिंह के खेत में ऐसी जादुई चावल की पैदावार हो रही है, जो सामान्य पानी में बिना चूल्हे पर चढ़ाए ही पक जाता है। केवल 60 मिनट में यह चावल खाने लायक हो जाता है। इस चावल को बोका के नाम से …
रायबरेली। जिले के ऊंचाहार क्षेत्र के बरसवां गांव के उन्नतशील किसान राम गोपाल सिंह के खेत में ऐसी जादुई चावल की पैदावार हो रही है, जो सामान्य पानी में बिना चूल्हे पर चढ़ाए ही पक जाता है। केवल 60 मिनट में यह चावल खाने लायक हो जाता है। इस चावल को बोका के नाम से जाना जाता है।
बता दें कि असम में यह दुर्लभ चावल बहुत अधिक होता है। वहीं रायबरेली जिला प्रदेश का ऐसा जिला है, जहां पर इस चावल की पैदावार हो रही है। इस नायाब चावल को मधुमेह रोगी भी बेफिक्र होकर खा सकते हैं।
वैसे तो पूरे भारत में चावल बहुत चाव से खाया जाता है। जिसे पश्चिम बंगाल, ओड़िसा, असम में चावल के बिना भोजन का कोई स्वाद नहीं होता है। देश में चावल की विभिन्न प्रजातियां हैं, लेकिन बोका चावल की विशेषता उससे अलग पहचान दिलाए हुए हैं।
ऊंचाहार के बरसवा गांव निवासी राम गोपाल सिंह इस जादुई चावल के धान की बुआई किए हुए हैं। करीब आधा एकड़ भूमि पर इस जादुई धान की फसल लहलहा रही है। इस चावल में कार्बोहाइड्रेट के साथ प्रोटीन की अधिक मात्रा है। इसलिए इसे मधुमेह रोगी भी खा सकते हैं। इसके पेड़ की लंबाई करीब एक मीटर है।
इसकी फसल करीब 150 दिन में तैयार हो जाती है। इस चावल में सबसे अधिक 6 ग्राम प्रोटीन होता है और इसमें माइक्रो न्यूट्रिएंट्स भी शामिल हैं।
दुर्लभ प्रजातियों की खेती करते हैं राम गोपाल
बरसवा गांव के राम गोपाल सिंह विगत चार वर्षों से बड़ी दुर्लभ प्रजाति की विभिन्न फसलों की खेती कर रहे हैं। वह अपने खेतों में पंजाब नाबी का काला गेहूं, मणिपुर का चाक हाओ काला चावल और स्कॉटलैंड का काले आलू की खेती भी करते हैं। जिसके लिए उनको कृषि विभाग से कई बार सम्मान भी मिल चुका है। इस बार उन्होंने बोका चावल की फसल तैयार की है, जिसकी चर्चा पूरे जिले में है।
बोका चावल का है ऐतिहासिक महत्व
ऊंचाहार के बरसवा गांव में तैयार हो रहे जादुई चावल (बोका) का इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना है। यह चावल की नई प्रजाति नहीं है। सदियों पहले विलुप्त हुई फसल की इस प्रजाति को पुनर्जीवित किया जा रहा है। कृषि वैज्ञानिक व इतिहासकार बताते हैं कि यह चावल मुगलकालीन है। आज से करीब ढाई सौ वर्ष पूर्व 17 वीं शताब्दी में इस चावल का प्रयोग किया जाता था। उस समय मुगल सेना से लड़ने वाले असम सैनिकों का यह मुख्य आहार था। युद्ध के दौरान इस चावल को असम सैनिक अपने साथ ले जाते थे।
बोका को मिला है जीआई टैग
विशिष्ट प्रकार के इस जादुई चावल बोका को भारत सरकार ने ज्योग्राफिकल इंडिकेशन टैग दिया है। यह टैग उस वस्तु में मिलता है, जो देश में विशिष्ट होती है।
चंपारण से लाए हैं बीज
बोका चावल की प्रजाति विलुप्त होने के बाद कुछ वर्ष पहले असम के किसानों ने इसका पुनः उत्पादन शुरू किया है। लंबे समय की इस फसल को कुछ चुनिंदा किसान ही कृषि विशेषज्ञों के साथ मिलकर असम में पैदा कर रहे हैं। असम के बाद अब यह फसल उत्तर प्रदेश के ऊंचाहार में तैयार हो रही है। राम गोपाल सिंह बताते है कि यहां का वातावरण इस विशेष किस्म की फसल के लिए अच्छा है। इसलिए उम्मीद की जाती है कि आधा एकड़ भूमि में करीब पांच से छह कुंतल धान की पैदावार होगी। वह चावल के बीज चंपारण के विनोद गिरी से लेकर आए हैं। दूसरी ओर असम के ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे यह चावल बहुत होता है। चंपारण में विनोद गिरी इसकी खेती कर रहे हैं। जिनसे संपर्क कर यह चावल के बीज लेकर आए और उसकी पैदावार की है।