…ईश्वर की हमारी तलाश पूरी होनी है तो इसी जीवन, इसी संसार में पूरी होगी
हमें हजारों सालों से एक ईश्वर की तलाश है। एक ऐसा ईश्वर जिसे किसी ने नहीं देखा, लेकिन माना जाता है कि यह ब्रह्मांड उसी की रचना है और हम सबके जीवन, मृत्यु और भाग्य पर उसी का नियंत्रण है। धर्म और अध्यात्म दोनों की दृष्टि में संसार का अतिक्रमण ही ईश्वर को पाने का …
हमें हजारों सालों से एक ईश्वर की तलाश है। एक ऐसा ईश्वर जिसे किसी ने नहीं देखा, लेकिन माना जाता है कि यह ब्रह्मांड उसी की रचना है और हम सबके जीवन, मृत्यु और भाग्य पर उसी का नियंत्रण है। धर्म और अध्यात्म दोनों की दृष्टि में संसार का अतिक्रमण ही ईश्वर को पाने का रास्ता है। दोनों की दृष्टि में यह संसार मिथ्या है, अंधकार है। वह अंधकार जिसमें जाने कितनी सदियों, कितनी योनियों से हम सब भटक रहे हैं।
इस मिथ्या संसार में आवागमन से मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण ही जीवन का लक्ष्य है। यह जीवन के अस्वीकार का दर्शन है। ध्यान, समाधि और पूजा-पाठ मानसिक शांति और एकाग्रता के लिए तो ठीक है, लेकिन उनके माध्यम से अगर आप संसार का अतिक्रमण कर किसी काल्पनिक मोक्ष या ईश्वर की तलाश में हैं तो यह आत्मरति के सिवा कुछ नहीं। तमाम अस्तित्व, मोह, इच्छाओं और गति से परे यदि कोई मोक्ष है तो वह शून्य की ही स्थिति हो सकती है।
ऐसा शून्य अस्तित्व या ऊर्जा के पूरी तरह नष्ट हो जाने से ही संभव है। ऊर्जा चाहे जीवन की हो या पदार्थ की, कभी नष्ट होती नहीं। उसका रूपांतरण होता चलता है। हम ईश्वर कहे जाने वाले विराट ब्रह्मांडीय ऊर्जा के अंश हैं। वे छोटी-छोटी ऊर्जाएं जो रूप बदल-बदलकर इसी प्रकृति में बनी रहेंगी। अगला कोई जीवन हमें इस रूप में शायद नहीं मिले, लेकिन किसी न किसी रूप में यहीं मिलेगा। ईश्वर की हमारी तलाश पूरी होनी है तो इसी जीवन, इसी संसार में पूरी होगी।
पूजा-पाठ, कर्मकांड या योग से नहीं, गहरी संवेदना से ही उस ब्रह्मांडीय ऊर्जा का साक्षात्कार संभव है। उसे पाना है तो इस सोच को अपने भीतर गहरे उतारना होगा कि हम सब उस ऊर्जा के अंश हैं और इसीलिए यह समूची सृष्टि ही हमारे परिवार का विस्तार। सृष्टि से संपूर्ण तादात्म्य और उस एकत्व से उत्पन्न संवेदना, प्रेम और करुणा ही उसे जानने का एकमात्र रास्ता है। यह संसार माया या मिथ्या नहीं है।
अगर ईश्वर सच है तो उसकी कृति मिथ्या कैसे हो सकती है ? यही संसार हमारा घर है और यही गंतव्य। इसके इतर न कोई स्वर्ग है, न नर्क, न निर्वाण। ईश्वर की हमारी तलाश इसी दुनिया में पूरी होगी। हमारी विराट प्रकृति उसकी प्रतिच्छवि है। सूरज-चांद-तारों में उसका नूर। फूलों पर उतरती किरणों में उसकी मुस्कान। बच्चों की हंसी में उसकी मासूमियत। स्त्रियों में उसका ममत्व।
नदी, समुद्र, झरनों की गर्जना और पक्षियों के कलरव में उसका संगीत। बादलों में उसका वात्सल्य। ओस की पाकीज़ा बूंदों में उसकी करुणा। प्रकृति से संपूर्ण सामंजस्य और उसकी संतानों के बीच परस्पर प्रेम और सहकार में ही ईश्वरीय प्रकाश का प्रस्फुटन संभव है। यही उपलब्धि स्वर्ग है, यही मोक्ष। इसे देखने और महसूस करने के लिए दुनिया भर के ज्ञान, धार्मिक कर्मकांड या देह को गला देने वाली साधना की नहीं, छोटे बच्चों की चमकती आंखों और मासूम दिल की दरकार है।
- ध्रुव गुप्त