आधुनिकता में कहीं खो गए होली के रंग, गलियों में अब नहीं सुनाई देते हुलियारों के शोर

बरेली, अमृत विचार। आधुनिकता के साथ बदलती जीवन शैली ने अब पर्वों का उल्लास भी कम कर दिया है। होली पर भी अब वह पारंपरिक रंगों की कमी खलती है। पहले जहां होली के कई दिन पहले से ही गलियों में हुलियारों का शोर, घर की दलान में होली के गीतों से एक अलग ही …
बरेली, अमृत विचार। आधुनिकता के साथ बदलती जीवन शैली ने अब पर्वों का उल्लास भी कम कर दिया है। होली पर भी अब वह पारंपरिक रंगों की कमी खलती है। पहले जहां होली के कई दिन पहले से ही गलियों में हुलियारों का शोर, घर की दलान में होली के गीतों से एक अलग ही माहौल होता था लेकिन अब न तो ऐसा कुछ सुनाई देता है न ही पता चल पाता है कि त्योहार कब आया और कब निकल गया।
होली के उल्लास के रंगों में से पारंपरिक रीति-रिवाज बेरंग से हो गए हैं। होली प्रेम व भाईचारे का पर्व है लेकिन अब समाज में भाईचारा समाप्त हो रहा है। इसका असर होली से पहले देखने को मिल रहा है। अब न पहले जैसा होलिका दहन का माहौल रहा और न होली का। होली के दिन लोग एकजुट तो होते हैं लेकिन गीतों की वह परंपरा अब लुप्त हो रही है।
रामजी के हाथ कनक पिचकारी होली गीत की शुरुआत होती थी तो ग्रामीण भांग के नशे में झूमते नजर आते थे। रंगों से सराबोर कर देने वाली होली में मिठास घोलने वाली जोगीरा की बोली खामोश है। अब फगुआ का राग, ढोलक की थाप और झांझों की झंकार बिना पुरानी पीढ़ी त्योहार का वह रस नहीं पा रही जिसकी वह आदी थी। पहले महाशिवरात्रि से ही हुलियारों का राग सुनाई पड़ने लगता था। फगुआ गायन शुरू हो जाते थे लेकिन अब डीजे के शोर में परंपरा की मिठास कहीं गुम हो गई सी लगती है।
अश्लील गीतों का बढ़ा प्रचलन
अखिल भारतीय साहित्य परिषद के ब्रज प्रांतीय संरक्षक डॉ. एनएल शर्मा ने बताया कि पहले होली गीतों में समाज का सांस्कृतिक रूप दिखता था। गायन में अश्लीलता नहीं थी लेकिन अब द्विअर्थी गीतों का प्रचलन बढ़ गया है। अश्लील गीतों के कारण होली का रंग बदरंग हो रहा है। होली की संस्कृति गांवों में झलकती है लेकिन आपसी विद्वेष बढ़ने के कारण ग्रामीण एक जगह एकत्रित नहीं होते हैं। पहले घर-घर घूमकर लोग होली के दिन तक फाग गाते थे। इसके बाद भी 15 दिन तक चैता गाकर आनंद उठाते थे। अब यह परंपरा गांवों से भी लगभग लुप्त होती जा रही है।