खुद को जिंदा साबित करने के लिए 22 साल से संघर्ष कर रहे संतोष, नाना पाटेकर कई बार कर चुके हैं मदद
वाराणसी, अमृत विचार। संतोष मूरत सिंह को उनके ही पट्टीदारों और गांव के कुछ लोगों ने मिलकर साल 2003 में सरकारी दस्तावेज में मृत साबित कर दिया। इतना ही नहीं उनकी तेरहवीं संस्कार कर सारी संपत्ति अपने नाम करा ली। तब से लेकर आज तक संतोष खुद को जिंदा साबित कर अपनी पैतृक जमीन वापस लेने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें उनकी मदद फिल्म अभिनेता नाना पाटेकर भी कर रहे हैं। साल 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और 2019 में मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी न्याय दिलाने का आश्वासन दिया था, बावजूद इसके सरकारी मशीनरी अभी तक संतोष को कागजों में जिंदा नहीं करा पाई है।
संतोष कहते हैं कि उनके कार्यों को सभी ने कांड तो खूब बनाया, यहां तक उनके जीवन पर कागज नाम की फिल्म भी सलमान खान ने बनाई, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। हालांकि इस दौरान वह नाना पाटेकर की तरफ से की जा रही मदद को अपनी ताकत मानते हैं। दो दिन पहले भी नाना पाटेकर से संतोष की मुलाकात वाराणसी में हुई थी, उस दौरान नाना पाटेकर ने वाराणसी कमिश्नर को फोन कर संतोष की मदद करने को कहा था।
वाराणसी स्थित चौबेपुर के छितौनी गांव निवासी संतोष मूरत सिंह के पिता मूरत सिंह का निधन साल 1988 में हो गया था, तब संतोष महज 8 साल के थे, जिसके बाद पिता के नाम की साढ़े 12 एकड़ जमीन माता मीना सिंह के नाम आ गई, साल 1995 में मां का भी निधन हो गया। बाद में पैतृक संपत्ति संतोष के नाम आ गई। सबकुछ ठीक चल रहा था। साल 2000 में नाना पाटेकर आंच फिल्म की शूटिंग के लिए छितौनी गांव पहुंचते हैं और कई दिनों तक गांव में ही रहते हैं। इस दौरान संतोष उन्हें लिट्टी और साग अपने हाथों से बनाकर खिलाते हैं। नाना पाटेकर को उनके हाथों से बना भोजन इतना स्वादिष्ट लगता है कि वह संतोष को लेकर मुंबई चले जाते हैं, लेकिन जब संतोष करीब तीन साल बाद अपने गांव छितौनी वापस लौटते हैं तो पता चलता है कि उनको सरकारी दस्तावेजों में मृत दिखाकर गांव के ही कुछ लोगों ने उनकी संपत्ति हड़प ली है। तब से संतोष का शुरू हुआ संघर्ष आज तक जारी है।
चुनाव लड़कर खुद को जिंदा करने की कर रहे कोशिश
संतोष मूरत सिंह बताते हैं कि उनकी मृत्यु साल 2003 में मुंबई में हुये ट्रेन बम धमाके में हो चुकी है, ऐसा राजस्व अभिलेख बताते हैं, यह खेल उनके पट्टीदारों और गांव के ही कुछ लोगों ने मिलकर किया था। इन्हीं अभिलेखों के आधार पर उनकी जमीन भी उन लोगों ने हड़प ली।
संतोष ने बताया कि सरकारी दस्तावेजों में खुद को जिंदा करने के लिए पिछले कई सालों से चुनाव लड़ रहा हूं। सबसे पहला चुनाव राष्ट्रपति पद के लिए साल 2012 में लड़ने की योजना बनाई थी, लेकिन कागजी कार्रवाई पूरी नहीं हो सकी थी। उसके बाद विधानसभा का चुनाव भी लड़ा, जिसमें सात हजार के करीब वोट भी मिला। वह बताते हैं कि कई बार तो उनका नामांकन ही खारिज कर दिया जाता है। पुलिस उन्हें कई बार जेल भी भेज चुकी है। एक बार जंतर मंतर पर धरने के दौरान दिल्ली पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था और तिहाड़ जेल भेज दिया था। संतोष का दर्द यहीं कम नहीं होता, वह बताते हैं कि जिले में जब भी कोई वीआईपी का दौरा होता है तो उन्हें नजरबंद कर दिया जाता है, प्रशासन को यह डर लगता है कि कहीं गले में मैं जिंदा हूं की तख्ती लटका कर पहुंच न जाऊं।
मुख्यमंत्री ने दिया आश्वासन
संतोष की मानें तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी उनको न्याय दिलाने का वादा किया था, लेकिन जब भी अधिकारियों के पास जाता हूं। तब केवल इतना ही पता चलता है कि कार्रवाई की जा रही है। इतने साल बीत जाने के बाद अभी तक तक कोई न्याय मिला नहीं आगे देखिये क्या होता है।
हजरतगंज थाने में दर्ज हो चुका है मुकदमा
संतोष के मुताबिक साल 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलकर अपनी समस्या बताई थी, तब अखिलेश यादव के निर्देश पर हजरतगंज थाने में आरोपितों के खिलाफ एफआईआर भी हुई, लेकिन बाद में उसमें भी फाइनल रिपोर्ट लगा दी गई।
परिवार में कोई नहीं, रिश्तेदारों ने भी मुंह मोड़ा
संतोष बताते हैं कि केवल अकेले वही नहीं हैं जो कागजों में मर चुके हैं उनके जैसे पांच हजार लोग हैं जो अपने जिंदा होने का सबूत लिये दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं। संतोष ने बताया है कि उनके पिता फौज में थे, वह अपने माता-पिता के अकेले संतान हैं, उनका विवाह भी नहीं हुआ है। उनकी खराब हालत को देखकर रिश्तेदारों ने भी मुंह मोड़ लिया है। रास्ता चलते लोग जो मदद कर देते हैं उसी से वह अपनी लड़ाई भी लड़ रहे हैं। हालांकि इस दौरान यह बताना वह नहीं भूलते की समय-समय पर उनकी भरपूर मदद नाना पाटेकर करते रहते हैं। साल में एक महीने के लिए वह नाना पाटेकर के पास जाते हैं, गणेश पूजा के समय वहीं रहते हैं।
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