Prayagraj News : विवाह की कानूनी उम्र में अंतर पितृसत्ता का एक अवशेष मात्र

Prayagraj News :  विवाह की कानूनी उम्र में अंतर पितृसत्ता का एक अवशेष मात्र

अमृत विचार, प्रयागराज : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बाल विवाह से जुड़े एक मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि पुरुषों और महिलाओं के बीच विवाह की कानूनी उम्र में अंतर पितृसत्ता का एक अवशेष मात्र है। वैवाहिक आयु के लिए आयु निर्धारण का उद्देश्य केवल इतना रहा होगा कि पुरुष अपनी शिक्षा पूरी कर लें और परिवार के भरण- पोषण के लिए वित्तीय रूप से स्वतंत्र और सशक्त हो जाएं।

कोर्ट ने आगे कहा कि इस अवसर को केवल पुरुष समाज तक सीमित करके आधी आबादी को जानबूझकर समान अवसर से वंचित कर समाज और वैधानिक कानून में पहले से मौजूद पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह की तुष्टि की गई है। उक्त टिप्पणी न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने संजय चौधरी की अपील पर विचार करते हुए की, जिसमें परिवार न्यायालय, गौतमबुद्ध नगर द्वारा अपीलकर्ता के विवाह को अमान्य घोषित करने से इनकार करने के आदेश को चुनौती दी गई थी। अपीलकर्ता का दावा है कि वर्ष 2004 में उसका बाल विवाह हुआ। उस समय वह केवल 12 वर्ष का था और उसकी पत्नी केवल 9 वर्ष की थी। वर्ष 2013 में जब उसने 20 वर्ष की आयु पूरी कर ली तो बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए) की धारा 3 के तहत राहत का दावा किया। यह प्रावधान विवाह के समय वयस्क होने वाले पक्ष को विवाह अमान्य घोषित करने की अनुमति देता है।

इसमें यह भी शर्त है कि पक्ष को वयस्क होने के 2 वर्ष के भीतर स्वयं याचिका दाखिल करनी होगी। इस आधार पर पत्नी ने तर्क दिया कि राहत का दावा समय-सीमा के अंदर नहीं किया गया है। उसके पति ने वर्ष 2010 में 18 साल की आयु पूरी कर ली थी। कोर्ट के समक्ष यह प्रश्न था कि क्या पुरुष के लिए वयस्कता की आयु 18 वर्ष से शुरू होगी या 21 वर्ष से, जो कि विवाह के लिए कानूनी उम्र है। अंत में कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि 18 वर्ष से कम उम्र में शादी करने वाली लड़की 20 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले अपनी शादी को रद्द करवा सकती है और इसी तरह एक लड़का 23 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले अपनी शादी को रद्द करवा सकता है।

अतः कोर्ट ने माना कि मौजूदा मामले में अपीलकर्ता 23 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले मुकदमा दाखिल कर सकता है, चूँकि दंपति के बीच बाल विवाह हुआ था, इसलिए कोर्ट ने विवाह को शून्य घोषित कर दिया। पत्नी ने 50 लाख रुपए का गुजारा भत्ता मांगा था, लेकिन पति ने केवल 15 लाख रुपए का भुगतान करने की क्षमता जाहिर की। इस पर कोर्ट ने पक्षकारों के बीच हुए बाल विवाह के लेनदेन को शून्य घोषित करते हुए एक महीने की अवधि के भीतर विपक्षी/पत्नी को 25 लाख रुपए का भुगतान करने का निर्देश दिया।

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