Kanpur: डाउन सिंड्रोम होने पर बच्चों का नहीं होता शारीरिक विकास; डॉक्टरों ने बताएं लक्षण, दी ये सलाह...
कानपुर, अमृत विचार। विश्व में अनुमानित एक हजार में से एक बच्चा डाउन सिंड्रोम के साथ पैदा होता है। इन बच्चों को समाज की मुख्यधारा में लाने, समान अवसर देने व गले लगाने की आवश्यकता है, जिससे कि ये एक स्वतंत्र जीवन जी सकें। डाउन सिंड्रोम पीड़ित बच्चों को प्यार, दुलार व अपनेपन की काफी जरूरत होती हैं और इनको अन्य बच्चों से अलग नहीं समझना चाहिए। यह जानकारी भारतीय बाल रोग अकादमी के अध्यक्ष डॉ. यशवंत राव ने दी।
भारतीय बाल रोग अकादमी ने जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज के बाल रोग विभाग सभागार में विश्व डाउन सिंड्रोम दिवस पर गोष्ठी का आयोजन किया। लखनऊ पीजीआई से जीएसवीएम आई जेनेटिक स्पेशलिस्ट डॉ.पूनम सिंह गंभीर ने बताया कि डाउन सिंड्रोम ऐसी बीमारी है, जिसमें बच्चों का शारीरिक विकास आम बच्चों की तरह नहीं हो पाता। उनका दिमाग भी सामान्य बच्चों की तरह काम नहीं करता।
प्यार और अच्छी देखभाल से ऐसे बच्चों को सामान्य जीवन दिया जा सकता है। डाउन सिंड्रोम एक अनुवांशिक समस्या है, जो क्रोमोसोम की वजह से होती है। गर्भावस्था के प्रारंभिक चरण में ही स्क्रीनिंग टेस्ट से इसका पता लगाया जा सकता है। डॉ.अनुराग भारती ने बताया कि डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चे का कद छोटा, मांसपेशियां शिथिल, नाक व चेहरा चपटा, जीभ मोटी या बाहर निकली हुई, गर्दन व कान छोटे, आंखें बादाम के आकार की और हाथ चौड़े व छोटे होते हैं।
बाल रोग के प्रोफेसर और आईएएपी अध्यक्ष डॉ.यशवंत राव ने बताया कि बाल रोग अस्पताल में प्रतिमाह आठ से 10 बच्चे सिंड्रोम से ग्रस्त आते हैं। सचिव डॉ.अमितेश यादव ने बताया कि इन बच्चे को ऐसा वातावरण देना चाहिए, जिसमें वह सामान्य जिंदगी जीने की कोशिश कर सके। बच्चे के पोषक तत्वों पर भी ध्यान देना चाहिए। बच्चे को बहुत ज्यादा सुरक्षित घेरे में न रखें।
वहीं, शास्त्री नगर स्थित संकल्प विशेष विद्यालय में भी आईएपी ने जागरूकता कार्यक्रम किया। चित्रकला प्रतियोगिता में बेहतर प्रदर्शन करने वाले बच्चों को पुरस्कृत किया गया। इस दौरान बाल रोग में स्त्री एवं प्रसूति रोग विभागाध्यक्ष डॉ. नीना गुप्ता, डॉ. वीएन त्रिपाठी, डॉ. रूपा डालमिया सिंह, डॉ. नेहा अग्रवाल, डॉ. शैलेंद्र कुमार गौतम, डॉ. प्रतिभा सिंह समेत आदि डॉक्टर, एसआर व जेआर मौजूद रहे।
नहीं खोजा जा सका इस बीमारी का इलाज
बाल रोग विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. अरुण कुमार आर्य ने बताया कि ग्रसित बच्चों में जन्मजात हृदय रोग, थायराइड विकार, स्लीप एपनिया, बहरापन व ब्लड कैंसर का खतरा अधिक रहता है। इसका पूरी तरह से अभी कोई इलाज नहीं है, लेकिन जल्दी पहचान व आधुनिक चिकित्सा शिक्षा पद्धति जैसे फिजियोथेरेपी, ऑक्यूपेशन थेरेपी, स्पीच थेरेपी आदि से इन बच्चों की जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने और जीवन की गुणवत्ता को काफी हद तक बेहतर बनाना संभव हुआ है।