मां पर शायरी से बनाया गया रिश्तों का पुल ढह गया, नहीं रहे मुनव्वर राना

लंबी बीमारी के बाद लखनऊ के पीजीआई अस्पताल में ली अंतिम सांस, दुनिया भर के चाहने वालों मे शोक

मां पर शायरी से बनाया गया रिश्तों का पुल ढह गया, नहीं रहे मुनव्वर राना

शबाहत हुसैन विजेता/ अमृत विचार, लखनऊ। "जिस्म पर मिट्टी मिलेगी पाक हो जाएंगे हम, ऐ जमीं एक दिन तेरी खुराक हो जाएंगे हम" दिल को झकझोर देने वाली ऐसी तमाम शायरियां लिखने वाले मुनव्वर राना की मौत की खबर सुनने को मिली। समझ नहीं आ रहा कि बात को कहां से शुरू की जाए। वो बहुत बड़े शायर थे, उनकी शायरी की पूरी दुनिया में इज्जत थी। मां पर जितना उन्होंने लिखा किसी ने नहीं लिखा। शायरी के मामले में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।

मुनव्वर राना को उर्दू अकादमी का अध्यक्ष बनाया गया था। एक शायर ने इलाज के लिए मदद की एप्लिकेशन भेजी। मुनव्वर राना ने चेयरमैन को लिखा कि शायर को जितनी जरूरत हो मदद कर दी जाए। चैयरमैन ने बताया कि अध्यक्ष अधिकतम 25 हजार रुपये की मदद कर सकता है। मुनव्वर राना ने उसी वक्त यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि अगर हम एक मरते हुए शायर को नहीं बचा सकते तो फिर हम यहां क्यों बैठें। इससे ज्यादा पैसे तो हम एक मुशायरा पढ़कर दे देंगे।

मुफलिसी में गुजरी बचपन से जवानी

मुनव्वर राना ने गरीबी को बहुत करीब से देखा था। इसी वजह से उनकी शायरी आम आदमी के बहुत पास से गुजरती है। "सो जाते हैं फुटपाथ पर अख़बार बिछाकर, मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते"। मुनव्वर राना के पिता ट्रक चलाते थे। यह समझदार हुए तो इन्होंने पिता को घर मे बिठाकर खुद स्टेयरिंग थाम लिया। ट्रक के पहिये और शायरी साथ-साथ दौड़ पड़ी। शायरी की रफ्तार ज्यादा रही। कुछ ही सालों में शायरी की दुनिया में वो बड़ा नाम हो गए। कोलकाता में उन्होंने अपना ट्रांसपोर्ट खोल लिया और तरक्की की सीढ़ियां तेजी से चढ़ने लगे। 

समाज को आईना दिखाती हैं उनकी शायरियां

सामाजिक हालात पर उनकी शायरी समाज को आइना दिखाती नजर आती है। उन्होंने लिखा है "तमाम उम्र हम एक दूसरे से लड़ते रहे, मगर मरे तो बराबर में जाके लेट गए"। मुनव्वर राना कैंसर का ऑपरेशन कराने के लिए अस्पताल में भर्ती हुए। भर्ती होते ही इतने फोन आये कि डॉ. प्रधान ऑपरेशन करते हुए डर रहे थे। लेकिन मुनव्वर राना ने उनसे कहा कि अभी मेरी मां जिंदा हैं इसलिए मुझे कुछ हो ही नहीं सकता। आप ऑपरेशन करिए। ऑपरेशन के बाद उन्होंने यह शेर लिखा "तो हमने सोचा कि इससे भी लड़ लिया जाए, डरा रहा था बहुत दिन से कैंसर हमको"।

संत परंपरा को आगे बढ़ाती हैं मुनव्वर की शायरियां

मुनव्वर राणा की शायरी संत परम्परा को आगे बढ़ाने वाली है। उन्होंने अपना लिबास भी संतों वाला अपना लिया था। वो बेबाकी से लिखते थे और बेबाकी से बोलते थे। रिश्ते निभाने का उनके पास गजब का फन था। मुनव्वर राना पर जितना भी लिखा जाए वो कम ही है। आखिर में उनका एक शेर याद आ रहा है "मुझे भी नींद सी आने लगी है थक गए तुम भी, चलो हम आज यह किस्सा अधूरा छोड़ देते हैं"।

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