जानिए कौन हैं प्रभा अत्रे? जो शास्त्रीय संगीत को जनसुलभ बनाने के लिये रूढियों को चुनौती देती रहीं 

जानिए कौन हैं प्रभा अत्रे? जो शास्त्रीय संगीत को जनसुलभ बनाने के लिये रूढियों को चुनौती देती रहीं 

नई दिल्ली। प्रख्यात शास्त्रीय गायिका डॉ. प्रभा अत्रे का यहां उनके आवास पर दिल का दौरा पड़ने से शनिवार को निधन हो गया। वह 92 वर्ष की थीं। शास्त्रीय संगीत को जनसुलभ बनाने के लिये वह जीवन भर रूढियों से लड़ती रहीं और जटिलता को चुनौती देती रहीं , पद्मविभूषण प्रभा अत्रे चाहतीं तो बेहद सफल डॉक्टर बन सकती थीं लेकिन उन्होंने अपने दिल की सुनी और संगीत को चुना। 

किराना घराने की विश्व विख्यात हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायिका अत्रे को संगीत विरासत में नहीं मिला था । वह तो कानून और विज्ञान की मेधावी छात्रा थीं लेकिन एक मोड़ पर आकर उन्हें लगा कि मेंढकों को चीरने फाड़ने या काला कोट पहनकर अपराधियों को बचाने से स्वर की साधना करना बेहतर है । उनका सपना और खुद से वादा था कि अंतिम श्वास तक वह गाती रहेंगी और 92 वर्ष की उम्र में उन्हें मुंबई में आज गाना भी था लेकिन इस स्वरयोगिनी की स्वरसाधना पर विराम लग गया और सुबह पुणे में उनके निवास पर तड़के दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्होंने आखिरी सांस ली । 

अत्रे ने पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज से विज्ञान में स्नातक किया और बाद में विधि कालेज से भी डिग्री ली । संगीत में उनके कदम अनायास पड़े । उन्होंने 2022 में देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण पाने के बाद भाषा को दिये इंटरव्यू में कहा था ,‘‘ मैं कानून और विज्ञान पढ़ रही थी और सपने में भी नहीं सोचा था कि गायिका बनूंगी । मेरे माता पिता शिक्षाविद थे और मेरी मां की बीमारी से संगीत हमारे घर में आया । वह हारमोनियम सीखती थी और मैं उनके पास बैठती थी। उन्होंने तो संगीत छोड़ दिया लेकिन मुझसे नहीं छूटा ।’’ 

उन्हें 1990 में पद्मश्री और 2002 में पद्मभूषण से नवाजा गया । उन्होंने कहा था ,‘‘ मुझे लगता है कि गायिका बनना मेरे प्रारब्ध में था । लोगों को मेरा संगीत पसंद आने लगा और मुझे उसके लिये पारिश्रमिक भी मिलने लगा ।’’ कानून और विज्ञान की छात्रा होने के कारण उन्होंने परंपरा के नाम पर अंधानुकरण नहीं किया और अपनी आंखें हमेशा खुली रखी । उन्होंने विदेश में भारतीय शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाई और 1969 में पहला कार्यक्रम किया । 

अपने संगीत में लगातार नये प्रयोग करते रहने वाली अत्रे को ‘ख्याल’, ‘तराना’, ‘ठुमरी’, ‘दादरा’, ‘गजल’, और ‘भजन’ सभी विधाओं में महारत हासिल थी । उन्होंने ‘अपूर्व कल्याण’, ‘मधुरकंस’, ‘पटदीप’, ‘मल्हार’, ‘तिलंग’ , ‘भैरव, भीमकली’, ‘रवी भैरव’ जैसे नये रागों की रचना भी की । युवावस्था में उन्होंने ‘संगीत शारदा’, ‘संगीत विद्याहरण’, ‘संगीत मृच्छकटिक’ जैसे संगीतमय नाटकों में शीर्ष महिला किरदार भी निभाया । 

देश के शास्त्रीय संगीत कैलेंडर के महत्वपूर्ण महोत्सव पुणे के सवाई गंधर्व भीमसेन महोत्सव का समापन उन्हीं के गायन से होता था । पंडित भीमसेन जोशी ने अपने गुरु की स्मृति में यह कार्यक्रम शुरू किया और 2006 के बाद उन्होंने अत्रे को महोत्सव की समाप्ति का जिम्मा सौंपा । तभी से यह परंपरा चली आ रही थी । वह अपने कार्यक्रम में अपनी ही बंदिशें गाती थी । ‘जागूं मैं सारी रैना (राग मरू बिहाग), ‘तन मन धन ’ (राग कलावती), ‘नंद नंदन’(राग किरवानी) जैसे उनके गीत बरसों तक संगीतप्रेमियों को लुभाते रहेंगे । 

एक महान गायिका होने के साथ वह चिंतक, शोधकर्ता, शिक्षाविद्, सुधारक, लेखिका, संगीतकार और गुरु भी थीं । उन्होंने हमेशा शास्त्रीय संगीत की पहुंच को विस्तार देने के लिये शिक्षा प्रणाली में बदलाव की पैरवी की । उनका कहना था ,‘‘ सभी को इसके लिये काम करना होगा , श्रोताओं से लेकर संगीतकारों और सरकार तक । हमारी शिक्षा प्रणाली को बदलना होगा और संगीत की शिक्षा अनिवार्य करनी होगी । श्रोताओं को भी शास्त्रीय संगीत समझने के लिये मेहनत करनी होगी।’ 

अत्रे ने ‘स्वरमयी गुरुकुल’ की भी स्थापना की जिसमें दुनिया भर के छात्रों को दोनों परंपराओं ‘गुरु शिष्य’ और संस्थागत शिक्षा दी जाती थी । उनका मानना था कि इन दोनों के बीच अंतर को मिटाने की जरूरत है । मौजूदा दौर के गायकों से उन्हें कोई गिला नहीं था । वह फिल्मी संगीत से लेकर गजल और फ्यूजन सभी कुछ चाव से सुनती थीं । अपने संगीतमय सफर में शिखर तक पहुंचने के बावजूद उनकी साधना में कहीं कोई कमी नहीं आई थी । 

उनका कहना था ,‘‘ एक साधक के तौर पर मैं कभी संतुष्ट नहीं हो सकती क्योंकि सीखने का कोई अंत नहीं है । मैं आखिरी सांस तक गाना चाहती हूं और संगीत के अन्य पहलुओं पर भी काम करना चाहती हूं । मैं शास्त्रीय संगीत को आम जनता तक ले जाना चाहती हूं ताकि वे इसे आसानी से सीख सकें क्योंकि ऐसा नहीं हुआ तो शास्त्रीय संगीत बचेगा नहीं ।’’ 

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