बरेली: काकोरी कांड के क्रांतिकारियों की फौलादी इरादों की गवाह है सेंट्रल जेल

नौ अगस्त 1925 को सरकारी खजाना लूटने के बाद बरेली में लंबे समय तक रखा गया था कैद, यहां भी भूख हड़ताल कर हिला दिया था ब्रिटिश सरकार को

बरेली: काकोरी कांड के क्रांतिकारियों की फौलादी इरादों की गवाह है सेंट्रल जेल

बरेली, अमृत विचार : अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारियों की लड़ाई में "काकोरी कांड" एक अहम घटना थी। नौ अगस्त 1925 को काकोरी में ट्रेन से ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लूटने के लिए 40 क्रांतिकारियों ने अपनी जान की बाजी लगाई थी। ब्रिटिश हुकूमत पर यह इतनी तगड़ी चोट थी कि अंग्रेज अफसर बुरी तरह बौखला गए थे।

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काकोरी कांड को अंजाम देने वाले क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी का सिलसिला शुरू हुआ तो बरेली की सेंट्रल जेल कई साल तक उनके जीवट और जांबाजी की गवाह बनी। सेंट्रल जेल में कैद किए गए इन क्रांतिकारियों में बरेली के दामोदर स्वरूप सेठ के अलावा मुकुंदी लाल, शचींद्रनाथ बख्शी, विष्णु शरण दुबलिश, मन्मथनाथ गुप्त और राजकुमार सिन्हा प्रमुख थे।

इनमें से कई क्रांतिकारियों ने आजादी के बाद भी देश के लिए बहुत कुछ किया। सेंट्रल जेल के रिकॉर्ड में आजादी की लड़ाई में उनके संघर्ष की गाथा आज भी सुरक्षित है।

असहयोग आंदोलन के साथ काकोरी कांड के लिए भी जेल गए दामोदर स्वरूप सेठ: दामोदर स्वरूप सेठ स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ कट्टर समाजवादी नेता भी थे। उन्हें 1925 मे काकोरी कांड के बाद पूछताछ के लिए गिरफ्तार कर सेंट्रल जेल में कैद किया गया था। दामोदर स्वरूप असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने की वजह से भी गिरफ्तार होकर जेल गए। लंबी कैद काटने के बाद सरकार ने उन्हें चिकित्सकीय आधार पर रिहा कर दिया था। सेठ और सतीश चंद्र बरेली से संबंधित थे।

विष्णु शरण दुबलिश को 10 साल सजा काटने के बाद दे दी थी गई उम्रकैद: विष्णु शरण दुबलिश को महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में शामिल होने की वजह से गिरफ्तार किया गया। जेल में क्रांतिकारियों से संपर्क के बाद उन्होंने गांधी जी का अहिंसा मार्ग छोड़कर सशस्त्र क्रांति का रास्ता चुन लिया। काकोरी कांड में उन्हें 10 साल कारावास की सजा मिली।

जेल में अधिकारियों से संघर्ष हो जाने के कारण उन्हें आजीवन कारावास की सजा देकर अंडमान भेज दिया। प्रदेशों में कांग्रेस की सरकार बन जाने पर एक नवंबर 1937 को वे रिहा हुए। जेल में दुबलिश के विचारों में फिर परिवर्तन हुआ और वह कांग्रेस में शामिल हो गए। 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह और 1942 के आंदोलनों में सक्रिय रहने के कारण उन्हें फिर जेल में बंद कर दिया गया।

शचींद्रनाथ बख्शी पर ब्रिटिश सरकार ने अशफाक के साथ चलाया था मुकदमा: शचींद्रनाथ बख्शी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख क्रांतिकारी थे। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र क्रांति के लिए गठित हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य होने के साथ उन्होंने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में काकोरी कांड में भाग लिया था।

1923 में दिल्ली की स्पेशल कांग्रेस के दौरान वह बिस्मिल के सम्पर्क में आए थे और फिर उनकी पार्टी एचआरए में शामिल हो गए थे। कुछ दिन झांसी से निकलने वाले एक अखबार का संपादन किया। बख्शी ने काकोरी कांड में प्रत्यक्ष भाग लिया लेकिन पुलिस के हाथ नहीं आए और फरार होने के बाद बिहार में छिपकर पार्टी का काम करते रहे।

उन्हें भागलपुर से पुलिस ने उस समय गिरफ्तार किया जब काकोरी कांड के मुख्य मुकदमे का फैसला सुनाया जा चुका था। 13 जुलाई 1927 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उन्हें और अशफाक को सजा दिलाने के लिए लखनऊ की विशेष अदालत में काकोरी षड्यंत्र का पूरक मुकदमा दर्ज हुआ। इसी मुकदमे में अशफाक उल्ला खां को फांसी की सजा हुई थी।

मुकुंदीलाल ने जेल में लंबी भूख हड़ताल करके भी हिला दिया था अंग्रेजों को: मुकुंदीलाल 1918 के पुराने क्रांतिकारी थे और पहले भी सजा काट चुके थे। मुकुंदीलाल को जेल से छूटते ही क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल उन्हें काकोरी के एक्शन में ले गए। इसमें उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। सेंट्रल जेल बरेली पहुंचे काकोरी के इन क्रांतिकारियों ने राजनीतिक बंदी का दर्जा पाने के लिए लंबी भूख हड़ताल की। तब भगत सिंह ने भी लाहौर जेल से समर्थन संदेश भेजा था।

हमारी भूख हड़ताल खत्म कराने के बजाय लाशों के बंदोबस्त में जुटें, मन्मथनाथ ने भेजा था संदेश: मन्मथनाथ गुप्त जनवरी 1928 में सेंट्रल जेल बरेली पहुंचे तो यहां पहले से बंद काकोरी के कैदी राजकुमार सिन्हा और मुकुंदीलाल अपने अधिकारों के लिए भूख हड़ताल पर थे। क्रांतिकारियों ने जेल में ही तय कर लिया था कि अगर उन्हें किसी और जेल में भेजा जाएगा तो वे वहां भी अपने अधिकारों के लिए अनशन करेंगे।

भूख हड़ताल की वजह से राजकुमार सिन्हा और मुकुंदीलाल की हालत बहुत खराब हो गई। मुकुंदीलाल ने 32वें दिन और राजकुमार ने 38वें दिन अनशन तोड़ा। मन्मथनाथ गुप्त ने जेल से बाहर अपने साथियों को यह संदेश भेज दिया था कि साथियों को उनकी भूख हड़ताल खत्म कराने की फिक्र करने के बजाय उनकी लाशों के बंदोबस्त में जुटें।

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