पढ़िए गोल्ड मेडलिस्ट डॉक्टर की अनूठी कहानी, बोर्ड परीक्षा में आई थी थर्ड डिवीजन

हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट में थर्ड डिवीजन पास होने वाले छात्र ने चिकित्सा के क्षेत्र में हासिल किया गोल्डमेडल

पढ़िए गोल्ड मेडलिस्ट डॉक्टर की अनूठी कहानी, बोर्ड परीक्षा में आई थी थर्ड डिवीजन

लोगों की आलोचना के बाद भी यूपी सीपीएमटी की तैयारी कर हासिल की 32वीं रैंक

लखनऊ, अमृत विचार। हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट के नंबरों से जीवन के उपलब्धियों की तारीखें तय होती हैं। मौजूदा समय में कुछ ऐसा ही माना जाता है। हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट में कम नंबर आना यानी की नाकाबिल घोषित होने के लिए काफी है। शायद प्रतिस्पर्धा का यही दौर उन बच्चों के लिए अवसाद का कारण बन रहा है, जिन्होंने कड़ी मेहनत तो की लेकिन उसके अनुकूल उन्हें नंबर नहीं मिले। इसके पीछे की एक वजह आजकल 70 से 80 फीसदी नंबर पाना सामान्य योग्यता समझी जाती है, लेकिन एक दौरा ऐसा भी था, जब कुछ फीसदी बच्चे ही पास हुआ करते थे। उसी दौर और उन्हीं कुछ बच्चों में शामिल डॉ प्रदीप कुमार शुक्ल की कहानी अवसाद ग्रस्त बच्चों के लिए प्रेरणादायक है। डॉ प्रदीप कुमार शुक्ल के चिकित्सक बनने की कहानी उनके कड़ी मेहतन को बयां करने के लिए काफी है।

डॉ प्रदीप कुमार शुक्ल का जन्म लखनऊ के बंथरा स्थित भौकापुर गांव में हुआ था। किसान परिवार में जन्में प्रदीप कुमार शुक्ल के पांच भाई और दो बहने थीं। पिता डाकघर में पोस्टमैन की नौकरी करते थे। गांव के प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा की शुरूआत हुई। पारिवारिक स्थित बहुत अच्छी नहीं थी। जीवन यापन के लिए खेतों में काम करना रोजमर्रा की बात थी। जिसका सीधा असर प्रदीप कुमार शुक्ल के पढ़ाई पर पड़ रहा था, कक्षा आठ तक मेधावी रहे छात्र प्रदीप कुमार शुक्ल ने साल 1982 में बंथरा स्थित विद्यालय से हाईस्कूल की परीक्षा दी। जिसका परिणाम क्या हुआ। इसका जिक्र डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल ने अपने फेसबुक वॉल पर किया हुआ है। उसके कुछ अंश आपकों पढ़ाते हैं। उससे पहले आपकों बता दें कि हाईस्कूल की परीक्षा करीब 52 बच्चों ने दी थीं, जिसमें सात थर्ड डिवीजन में पास हुये थे। उन्हीं में से एक छात्र प्रदीप कुमार शुक्ल भी थे।

बीएससी में हुये फेल, फिर कुछ करने की ठानी

डॉ.प्रदीप कुमार शुक्ल इंटर करने के लिए लखनऊ आ गये, लेकिन पढ़ाई में पूरी तरह से मन नहीं लगा। घूमने की इच्छा ने इण्टरमीडिएट में भी थर्ड डिवीजन से संतोष करना पड़ा। बीएससी में एडमिशन लिया और तीनों विषयों में फेल हो गये,लेकिन बीएससी में फेल होना ही मन मे कुछ करने की इच्छा पैदा कर गई। डॉ. प्रदीप बताते हैं कि उस समय जब मेडिकल की पढ़ाई करने की बात किसी से की तो सिर्फ आलोचना मिली। लोग कहते थे कि पास हुये थर्ड डिवीजन और डॉक्टर बनोगे। लेकिन कड़ी मेहनत और मजबूत इरादों के साथ यूपी सीपीएमटी की परीक्षा दी और यूपी में 32वीं रैंक हासिल हुई। केजीएमसी में तब एमबीबीएस करने का मौका मिला। जन्तुविज्ञान (जूलॉजी) में 300 में 296 नंबर आये थे। उसके बाद पीडियाट्रिक में एमडी करने के दौरान टॉप किया और गोल्ड मेडल जीता।

फेल होने पर कभी आत्महत्या का विचार नहीं आया 

डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल अपनी फेसबुक पर लिखते हैं कि तब भी मई जून में ही निकला होगा रिज्लट। उन दिनों गाँव भर में विज्ञान का मैं अकेला विद्यार्थी था। मेरे बड़े भाई पहले ही विज्ञान विषय लेकर फेल हो चुके थे हाईस्कूल में, अब मेरी बारी थी। सुबह किसी ने खबर भिजवाई कि रिज्लट निकला है भैय्या देखा जाय। बन्दर छाप काला दन्त मंजन थूक कर जल्दी से पैंट पहनी और भाग लिए 5 किलोमीटर दूर कस्बे नुमा गांव या गांव नुमा कस्बे में, जहाँ पेपर मिलने की उम्मीद थी। वहां पहुंचते ही एक सहपाठी मिले जो पढ़ने में मेरी तरह ठीक ठाक थे, कहा कि सब गुड़ गोबर हो गया यार, क्लास में किसी का नंबर अखबार में नहीं छपा है। मैंने एक बार मिमियाती आवाज में पूछा - सच कह रहे हो ? लेकिन उसने उत्तर देने के बजाय आंखों में आँसू भर लिए। अब शक की कोई गुंजाईश कहाँ बची थी ?

घर में मेरा थोबड़ा देख कर किसी को रिज्लट पूछने की जरूरत नहीं थी। सभी अपने कामों में लगे थे किसी को गरियाने या दिलासा देने की भी फुरसत नहीं थी और न ही यह आवश्यकता महसूस हुई होगी। अलबत्ता माँ ने जरूर सर पर हाँथ फेरते हुए कहा " गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में " इससे आगे के शब्द उनको याद नहीं थे। मुझे याद थे लेकिन कंठ रुंधा हुआ था।

उस रात देर तक पता नहीं क्या क्या सोचता रहा। अपने गांव में सबसे होशियार लड़कों में मेरा शुमार था और मैं फेल हो गया था। दिल की धडकनें बढ़ी हुईं थीं। नींद आंखों से कोसों दूर। भविष्य के प्लान बनाता रहा पर एक क्षण के लिए भी आत्महत्या जैसा विचार दिमाग में नहीं आया। लेकिन कहानी तो अभी बाकी है मेरे दोस्त - अगले दिन मन नहीं माना तो फिर भागे सुबह सुबह साइकिल ले कर,अब थोड़ी हिम्मत आ चुकी थी कि अखबार में नंबर खुद भी ढूंढ लें एक बार,तो साहब खोजने पर मिल गया अपना नंबर, बाकायदा चमक रहा था ( T) के साथ।

हुर्रे !!!!!!! मैं पास हो गया था और मैं ही नहीं, पचपन जनों की भरी हुई क्लास में पूरे सात लोग पास हुए थे, सभी थर्ड डिवीजन में। डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल ने यह पोस्ट उन बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए लिखी थीं, जिनका 12 वीं का रिजल्ट आज घोषित होने वाला है। अभी फेसबुक पर 95%, 97%, 98% जैसी स॔ख्यायें धड़ा धड़ अवतरित होने वाली हैं। इनको देख कर बहुत सारे बच्चे जिनके रोल नं के आगे 50, 60 या 70% जैसी स॔ख्यायें लिखी होंगी, दुखी होने वाले हैं। मै उनके लिए अपने नाम के आगे लिखी कुछ स॔ख्यायें साझा कर रहा हूं, शायद इनसे उनका दुख कुछ कम हो सके और कुछ लोग प्रेरित हो सकें।

हाईस्कूल - 42 %
इन्टरमीडिएट - 39 % ( 4 अंकों के ग्रेस मार्क्स फिजिक्स मे )
बी एस सी - प्रथम वर्ष - तीनों विषयों मे फेल

यूपी सीपीएमटी - 32nd रैंक ( ऑल इन्डिया पी एम टी के लिए इन्टरमीडिएट मे 50 % अंक की अनिवार्यता के कारण परीक्षा नहीं दे सके )

एमबीबीएस - केजीएमसी, लखनऊ - 60 %
यू पी पी जी एम ई ई ( एम डी एडमिशन के लिए एग्जाम ) - 9th रैंक ( UP )
ऑल इंडिया पी जी एम ई ई के लिए उस वर्ष मेरा बैच अर्ह नहीं था ( इंटर्नशिप कुछ दिन बाद पूरी हो रही थी )

एमडी ( बाल रोग - केजीएमसी, लखनऊ ) - गोल्ड मेडल - डॉ प्रदीप कुमार शुक्ल 

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