बड़ी चेतावनी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विभागों के सचिवों की बैठक में उठा यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या भारत में भी श्रीलंका जैसी आर्थिक बदहाली आ सकती है? बैठक में कई शीर्ष सचिवों ने आशंका जताई कि लोगों को मुफ्त चीजें उपलब्ध कराने के चलते देश में कई राज्यों की हालत श्रीलंका जैसी हो सकती है। …
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विभागों के सचिवों की बैठक में उठा यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या भारत में भी श्रीलंका जैसी आर्थिक बदहाली आ सकती है? बैठक में कई शीर्ष सचिवों ने आशंका जताई कि लोगों को मुफ्त चीजें उपलब्ध कराने के चलते देश में कई राज्यों की हालत श्रीलंका जैसी हो सकती है। कुछ राज्य सरकारों की लोकलुभावन घोषणा और योजनाओं को लंबे समय तक नहीं चलाया जा सकता। अगर इन पर रोक नहीं लगाई गई गई तो इससे राज्य आर्थिक रूप से बदहाल हो सकते हैं।
पंजाब, दिल्ली, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने जो लोकलुभावन घोषणा की हैं, उन्हें लंबे समय तक चलाना संभव नहीं है। कई राज्यों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और यदि उन्हें केंद्र से मदद नहीं मिलती तो हालत खराब हो जाते। जबकि राज्यों के पास लोकलुभावन घोषणाओं के लिए बजट की व्यवस्था करने के सीमित संसाधन होते हैं। हाल में ही संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान किसी राजनीतिक दल ने बिजली-पानी मुफ्त देने का वादा किया तो किसी ने स्कूटी व लैपटॉप।
कोरोना संकट के बाद से ही केंद्र सरकार देश के करोड़ों गरीब लोगों को हर महीने पांच किलो राशन मुफ्त दे रही है। 2014 के बाद से प्रधानमंत्री की सचिवों के साथ यह नौवीं बैठक थी। गौरतलब है कि पिछले कुछ सप्ताह से श्रीलंका में आर्थिक संकट इतना गहरा गया है कि वहां खाद्य पदार्थों, ईंधन और रसोई गैस की भारी किल्लत हो गई है। आसमान छूती महंगाई से लोगों का गुस्सा फट पड़ा है।
श्रीलंका के पास विदेशी मुद्रा की कमी हो गई है, जिस कारण वह पुराने कर्जों को नहीं चुका पा रहा है। श्रीलंका में यह आर्थिक संकट इस साल की शुरुआत से गहराया है, जिससे यहां के लोग काफी प्रभावित हैं।देश के चुनावों में राजनीतिक दलों के बीच लोक लुभावनी घोषणाएं करने की होड़ मची रहती है। यह राज्यों और केंद्र सरकार की आर्थिक स्थिति के लिए अच्छी बात नहीं है।
जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक दल अपनी ‘लोकलुभावन राजनीति’ को नियंत्रण में रखें। यदि वाकई ऐसा हो गया तो आर्थिक हालत अपने-आप ही बेहतर हो जाएगी। क्योंकि जब भी अर्थव्यवस्था की अनदेखी करते हुए राजनीति की जाती है तो उसके परिणाम बेहतर नहीं हो सकते। अस्सी के दशक से ही यह खतरनाक प्रवृत्ति देश को विपदा में डालती रही है। अब लोकलुभावन राजनीति से बाज आने की जरुरत है।