रामकथा में ऋष्यश्रृंग और श्रृंगवेरपुर का महत्त्व
रामकथा में ऋष्यश्रृंग और श्रृंगवेरपुर का अतिशय महत्त्व है। श्रृंगवेरपुर प्रयाग से रायबरेली मार्ग पर २४ किमी दूर गंगातट पर स्थित है जो रामायण काल में श्रृंगी ऋष्यश्रृंग ऋषि का आश्रम था। श्रृंगी ऋषि की पत्नी शांता थी जो अंगराज रोमपाद की पुत्री थी। अयोध्यानरेश दशरथ रोमपद के मित्र थे उनको कोई संतान नहीं थी …
रामकथा में ऋष्यश्रृंग और श्रृंगवेरपुर का अतिशय महत्त्व है। श्रृंगवेरपुर प्रयाग से रायबरेली मार्ग पर २४ किमी दूर गंगातट पर स्थित है जो रामायण काल में श्रृंगी ऋष्यश्रृंग ऋषि का आश्रम था। श्रृंगी ऋषि की पत्नी शांता थी जो अंगराज रोमपाद की पुत्री थी। अयोध्यानरेश दशरथ रोमपद के मित्र थे उनको कोई संतान नहीं थी अतः उन्होंने अपने मित्र से शांता को गोद ले लिया था। शांता का विवाह विभांडक के पुत्र श्रृंगी ऋषि से हुआ।
शांता को श्रृंगीवर नाम का एक पुत्र हुआ। पुत्र के बड़े हो जाने पर उन्होंने गृहस्थ आश्रम छोड़ दिया और वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार कर श्रृंगवेरपुर में आश्रम बनाया जहाँ उन्होंने बहुत से यज्ञ किये। उनके एक विशाल यज्ञ का वर्णन भवभूति ने उत्तररामचरितं में किया है। यज्ञ दान तप करते करते शांतादेवी को ब्रह्मज्ञान हो गया ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति जो ब्रह्म को जान लेता है वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है।
शांता स्वयं ब्रह्मस्वरूपा हो गई वे मानव से अतिमानव होगई सुमेरु मध्य शृङ्गस्थ। कुछ विद्वानों का मत है की शृंगवेरपुर में स्थित माँ शांता ललिता जी की ही प्रतिरूप हैं। ललिता सहस्रनाम के ४४वें श्लोक में शांता का उल्लेख्य है निष्कला निर्गुणा शांता निष्कामा निरुपलवा। ललिता सहस्रनामावली में –शान्तये नमः का उल्लेख्य है।
वस्तुतः ललिता माँ शांति की देवी हैं जो सुषुम्ना पिंगला और इड़ा नाड़ियों और मन बुध्दि और चित्त तीनो पुरों में निवास करती हैं। श्रृंगी ऋषि के साथ माँ शांताकी साधना का ध्येय दान त्याग तथा यज्ञ के द्वारा अधिकाधिक कल्याण करना रहा जिसके क्रम में श्रृंगी ऋषि और माँ शांता ने महाराज दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे राम लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न चार पुत्र हुए। माँ शांत श्रीविद्या की आदि जननी हैं। लोकविश्वाश है की कुर्मियों की उत्पत्ति श्रृंगी ऋषि और शांता से ही हुयी है। सिंगरौर कुर्मी अपना मूलस्थान श्रृंगवेरपुर ही मानते हैं और अपना मूल पुरुष श्रृंगीऋषि और माता शाता को मानते हैं ।
ये भी पढ़ें- कथा श्री गणेश के सिर काटने की