मिर्जा गालिब तो बांदा के कर्जदार थे

मिर्जा गालिब तो बांदा के कर्जदार थे

मिर्जा गालिब के ऊपर इधर बहुत कुछ लिखा गया है। मगर किसी ने यह नही लिखा कि मिर्जा गालिब ने कलकत्ता जाने के लिए बांदा मे कर्ज लिया था वह भी एक बार नही दो बार मगर मरते दम तक उस कर्ज को चुकाया नही। मिर्जा को कर्ज की क्या जरूरत पड़ी। कलकत्ता क्यों जा …

मिर्जा गालिब के ऊपर इधर बहुत कुछ लिखा गया है। मगर किसी ने यह नही लिखा कि मिर्जा गालिब ने कलकत्ता जाने के लिए बांदा मे कर्ज लिया था वह भी एक बार नही दो बार मगर मरते दम तक उस कर्ज को चुकाया नही। मिर्जा को कर्ज की क्या जरूरत पड़ी। कलकत्ता क्यों जा रहे थे यहीं से कहानी शुरू करता हूं।संक्षेप मे कहूँ तो गालिब अपनी पेंशन के संबंध मे गवर्नर जनरल से मिलने कलकत्ता जा रहे थे। क्योंकि उनकी पेंशन बहुत कम कर दी गयी थी।

तो पहले उनके पेंशन के मामले को जान लेते हैं। पेंशन के मुकदमे के बारे मे सबरस हैदराबाद, अंक तीन, जिल्द 63 मार्च 2001 मे श्री निसार अहमद फारुखी के लेख “मिर्जा की पेंशन का मुकदमा” के अनुसार नवाब अहमद बख्श को तीन लाख वार्षिक आय की जागीर इस शर्त पर मिली थी कि वे 25,000₹सालाना कंपनी सरकार के खजाने मे जमा करेंगे। मिर्जा नसुरल्ला बेग जो गालिब के चाचा थे की मौत के बाद गालिब के परिवार के पचास सवारों के दस्ते का खर्च और परिवार के वारिसों का खर्च इसी रकम से दिया जाना था।

गालिब के चाचा नसुरल्ला बेग के मरने के बाद अहमद बख्श ने सवारों का दस्ता खत्म कर दिया और वारिसों का वजीफा दस हजार सालाना से कम करके पांच हजार रुपये कर दिया। जिसमे ख्वाजा हाजी को भी शामिल कर दिया जो परिवार का नौकर था। उसको वारिस बता कर दो हजार रुपये का भागीदार भी बना दिया। इस तरह नसुरल्ला बेग के असली वारिसान के हिस्से में तीन हजार रुपए सालाना ही आया। इसमे से आधा 1500₹ गालिब और उनके छोटे भाई यूशूफ को दिए गए।

बचे 1500₹ नसुरल्ला की माता और तीन बहिनों को दिए गए। गालिब को यह मंजूर नहीं था कि घर कि नौकर बराबरी का भागीदार हो। अहमद बख्श ने सवारों का जो दस्ता भंग कर दिया था उसकी बचत को खुद इस्तेमाल कर रहा था। रकम सरकारी खजाने मे जमा नही की।गालिब का कहना था कि वारिसों की फिर जांच करवाई जाय और अलग अलग वजीफा दिया जाय और उनको सब हिस्सेदारों का निगरा बना कर विषेश दर्जा दिया जाय। नसुरल्ला खां की जागीर का अहमद बख्श खां से कोई संबंध नहीं है अतः वजीफा सरकारी खजाने से दिया जाय।

अंग्रेजी सरकार ने गालिब की कोई बात नहीं मानी। अंगरेजों के पत्राचार से पता चलता है कि वे गालिब से बहुत नाराज थे।
दिल्ली रेजीडेंसी के अधिकारी F. Hawkins का एक पत्र चीफ सेक्रेटरी Swinton के नाम है जिसमें उसने लिखा – नवाब शमशुददीन के बारे मे जो पत्र फारसी मे है और जिसमें लार्ड लेक के दस्तखत हैं और सील भी है…. मैनें असदउल्ला खां के बारे मे रिपोर्ट दी थी। इस व्यक्ति के गलत दावे को मान लेने के फेर मे सरकार दखल नहीं देगी जिसने न केवल सरकार को बल्कि आपको और मुझे भी परेशान किया। अब यह व्यक्ति सजा से बच नही सकता।

इस मामले को लेकर गालिब को कलकत्ता जाना था अतः बांदा के नवाब से धन प्राप्त करने की उम्मीद लेकर गालिब बांदा आए। भरी गर्मी मे मिर्जा का बांदा आने और जोखिम उठाने का कारण केवल यह था कि कलकत्ते के सफर मे होने वाले खर्चे का इंतजाम बांदा से हो जाय। बांदा नवाब उनके रिस्तेदार जो थे। गालिब 27 या 28 जून को सेजगाडी (दो मंजिल की ऊंट गाडी) से कानपुर से बांदा के लिए चले और तीन जुलाई को बांदा पहुचे। आजकल जहां राजकीय गर्ल्स इंटर कालेज है वहीं गाडियां रुकती थी।

यहां पर उनकी मुलाकात मीर करम अली से होती है। वे उनको नवाब जुल्फिकार अली के महल मे न पहुंचा कर बांदा के सदर अमीन मौलवी मीर अली खां के पास उनके घर बलखंडी नाका ले गए। बाद में नवाब ने गालिब को अपने मेहमानखाने मे ठहराया (आजकल इसमे नगरपालिका का दफ्तर है। बीमार पड़ जाने के कारण महीनों इसी जगह रहे) बांदा मे इस समय अंगरेजों का राज था और सदर अमीन का पद बहुत ऊंचा होता था। गालिब की उनसे भी दोस्ती हो गई।

गालिब जिस समय बांदा आए उस समय शमशेर बहादुर (सेकंड) की मौत के बाद अलीबहादुर प्रथम की आगरे वाली बीबी से पैदा जुल्फिकार अली कहने को बांदा की गद्दी पर थे। चार लाख की सालाना पेंशन उनको अंग्रेजों से मिलती थी। उनके साथ ही मिर्जा गालिब के मामा, मामी और मामाजाद भाई आदि भी बांदा मे रहते थे। मिर्जा खुद को भी किसी नवाब से कम नही समझते थे इस कारण रिस्तेदारों से कर्ज मांग नही सकते थे। हां किसी साहूकार से सूद पर कर्ज लेने मे उनको कोई एतराज नहीं था।

इसके वे आदी भी थे। दिल्ली में मे तो वे पहले ही इतना कर्ज ले चुके थे कि उनको कोई देता ही नही। बांदा नई जगह थी यहां नवाब साहब की जमानत पर जितना चाहें कर्ज मिल सकता था। अतः गालिब ने अनुमान लगा कर 2000₹ का कर्ज दिलवाने के लिए नवाब साहब से कहा। नवाब साहब ने यह जानते हुए भी कि यह रकम उन्हें ही भरनी पडेगी अपने बांदा के बैंकर अमीकरण मेहता से दो हजार रुपये का कर्ज मिर्जा गालिब को दिलवा दिया। इसी कर्ज के रुपये से मिर्जा गालिब कलकत्ते गए

2000₹मिलते ही मिर्जा गालिब ने बांदा से कलकत्ते के लिए प्रस्थान किया। यह पोस्ट यहीं पर समाप्त हो जाती अगर मिर्जा साहब कलकत्ते से फिर और बांदा से और कर्ज न मांगते। मिर्जा की रहीसी का आलम यह कि ठाठ-बाट से सफर शुरू किया। तीन नौकर, एक कहार, एक घोड़ा और घोड़ा था तो एक सईस घोड़े की देखभाल के लिए होना ही था और एक लढी। लढी पढ कर चक्कर मे न पडिए यहां बैलगाड़ी को लढी भी कहते हैं।

इस तरह गालिब साहब की सडक द्वारा बांदा से चले
स्वर्गीय कालिदास गुप्त ‘रिजा’ की पुस्तक “चार तौकियतों” से पता चलता है कि मिर्जा ने 13 नवम्बर 1827 को बांदा से कलकत्ते के लिए बैलगाड़ी जिसे बुंदेलखंड मे लढी या लाल कहा जाता है से बांदा चिल्ला मार्ग से चले और पहला पड़ाव एक मोड़ पर किया यह अब लामा गांव के नाम से जाना जाता है। यहां पर वे आराम फरमाते हैं और 20 नवम्बर को चिल्लातारा की तरफ चलते हैं और अतराहट गांव मे फिर आराम के लिए रुकते हैं।

बैलगाड़ी के हिचकोलों से परेशान होने के कारण 21 नवम्बर को वे घोड़े की सवारी करके चिल्लातारा पहुंचे जहाँ यमुना नदी और केन नदी का संगम है। अपनी यात्रा के बारे मे भी गालिब ने भी लिखा है। बैलगाड़ी के बारे मे वे लिखते हैं – चूंकि यह मुझसे भी कमजोर है। धीरे – धीरे चलती है बल्कि चलती ही नही है। दस बारह कोस भी ठीक तरह से न चल सकी और मोड़ से चिल्लातारा तक उसका पहुचना कठिन हो गया। मंगल की रात भोर पहर मे चला और दिन चढे लगभग दोपहर को चिल्लातारा की सरांय मे पहुचा और इस न चलने वाली गाड़ी का इंतजार करने लगा जो शाम को पहुची। यही से गालिब मे बांदा के अपने मित्र मौलवी साहब को लिखा। इस बारे मे मिर्जा के बहुत से पत्र “नामहाए फारसी गालिब (1969)मे है।

गालिब के पत्र से पता चलता है कि उन्होंने चिल्लातारा में एक नाव किराये पर ली और अपने सामान, नौकरों और घोड़े को उसमें लादवा कर सात दिनों मे इलाहाबाद पहुचे। फिर इलाहाबाद से बनारस पहुचे। और बनारस से कलकत्ते गए। इस मध्य पीरियड के बारे मे कुछ न लिख कर यह बतलाना चाहता हूं कि जब मिर्जा गालिब कलकत्ते पहुंचे उतर कर समय कर्ज के दो हजार रुपये मे से उनके पास केवल 600₹25 ही बचे थे। उन्होंने खुद इसका जिक्र एक खत मे करते हुए लिखा था – शाबान, रमजान शिवाल, और जीकदा तो बीत गया। जीउलहिज्जा भी आ पहुंचा। अगर कोई आसमानी मुसीबत नही आती है तो दो माह के लिए पैसे की चिंता से मुक्त हूँ

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