बात अठन्नी की…
रसीला इंजीनियर बाबू जगतसिंह के यहां नौकर था। दस रुपए वेतन था। गांव में उसके बूढ़े पिता, पत्नी, एक लड़की और दो लड़के थे। इन सबका भार उसी कंधों पर था। वह सारी तनख़्वाह घर भेज देता, पर घरवालों का गुज़ारा न चल पाता। उसने इंजीनियर साहब से वेतन बढ़ाने की बार-बार प्रार्थना की पर …
रसीला इंजीनियर बाबू जगतसिंह के यहां नौकर था। दस रुपए वेतन था। गांव में उसके बूढ़े पिता, पत्नी, एक लड़की और दो लड़के थे। इन सबका भार उसी कंधों पर था। वह सारी तनख़्वाह घर भेज देता, पर घरवालों का गुज़ारा न चल पाता। उसने इंजीनियर साहब से वेतन बढ़ाने की बार-बार प्रार्थना की पर वह हर बार यही कहते ‘अगर तुम्हें कोई ज़्यादा दे तो अवश्य चले जाओ। मैं तनख़्वाह नहीं बढ़ाऊंगा।’
वह सोचता,‘यहां इतने सालों से हूं। अमीर लोग नौकरों पर विश्वास नहीं करते पर मुझपर यहां कभी किसी ने संदेह नहीं किया। यहां से जाऊं तो शायद कोई ग्यारह-बारह दे दे, पर ऐसा आदर न मिलेगा।’
ज़िला मजिस्ट्रेट शेख सलीमुद्दीन इंजीनियर बाबू के पड़ोस में रहते थे। उनके चौकीदार मियां रमजान और रसीला में बहुत मैत्री थी। दोनों घंटों साध बैठते, बातें करते। शेख साहब फलों के शौक़ीन थे, रमजान रसीला को फल देता। इंजीनियर साहब को मिठाई का शौक़ था, रसीला रमजान को मिठाई देता।
एक दिन रमजान ने रसीला को उदास देखकर कारण पूछा। पहले तो रसीला छिपाता रहा। फिर रमजान ने कहा,‘कोई बात नहीं है, तो खाओ सौगंध।’
रसीला ने रमजान का हठ देखा तो आंखें भर आई। बोला,‘घर से खत आया है, बच्चे बीमार हैं और रुपया नहीं है।’
‘तो मालिक से पेशगी मांग लो।’
‘कहते हैं, एक पैसा भी न दूंगा।’
रमजान ने ठंडी सांस भरी। उसने रसीला को ठहरने का संकेत किया और आप कोठरी में चला गया। थोड़ी देर बाद उसने कुछ रुपए रसीला की हथेली पर रख दिए। रसीला के मुंह से एक शब्द भी न निकला। सोचने लगा। ‘बाबू साहब की मैंने इतनी सेवा की, पर दुख में उन्होंने साथ न दिया। रमजान को देखो ग़रीब है, परंतु आदमी नहीं, देवता है। ईश्वर उसका भला करे।’
रसीला के बच्चे स्वस्थ हो गए। उसने रमजान का ऋण चुका दिया। केवल आठ आने बाक़ी रह गए। रमजान ने कभी भी पैसे न मांग फिर भो रसीला उसके आगे आंख न उठा पाता।
एक दिन की बात है। बाबू जगतसिंह किसी से कमरे में बात कर रहे थे। रसीला ने सुना, इंजीनियर बाबू कह रहे हैं,‘बस पांच सौ! इतनी-सी रकम देकर, आप मेरा अपमान कर रहे हैं।’
‘हुजूर मान जाइए। आप समझें आपने मेरा काम मुफ़्त किया है।’
रसीला समझ गया कि भीतर रिश्वत ली जा रही है। सोचने लगा,‘रुपया कमाने का यह कितना आसान तरीक़ा है। मैं सारा दिन मज़दूरी करता हूं तब महीनेभर बाद दस रुपए हाथ आते हैं।
वह बाहर आया और रमजान को सारी बात सुना दी। रमजान बोला,‘बस इतनी-सी बात हमारे शेख़ साहब तो उनके भी गुरु है। आज भी एक शिकार फंसा है। हज़ार से कम तय न होगा। भैया, गुनाह का फल मिलेगा या नहीं, यह तो भगवान जाने, पर ऐसी ही कमाई से कोठियों में रहते हैं, और एक हम हैं कि परिश्रम करने पर भी हाथ में कुछ नहीं रहता।
रसीला सोचता रहा। मेरे हाथ से सैकड़ों रुपए निकल गए पर धर्म न बिगड़ा। एक-एक आना भी उड़ाता तो काफ़ी रकम जुड़ जाती। इतने में इंजीनियर साहब ने उसे आवाज़ लगाई,‘रसीला, दौड़कर पांच रुपए की मिठाई ले आ।’
रसीला ने साढ़े चार रुपए की मिठाई ख़रीदी और रमजान को अठन्नी लौटाकर समझा कि क़र्ज़ उतर गया।
बाबू जगतसिंह ने मिठाई देखी तो चौंक उठे,‘यह मिठाई पांच रुपए की है।’
‘हुजूर पांच की ही है।’
रसीला का रंग उड़ गया। बाबू जगतसिंह समझ गए। उन्होंने रसीला से फिर पूछा, रसीला ने फिर वही दोहराया। उन्होंने रसीला के मुंह पर एक तमाचा मारा और कहा,‘चल मेरे साथ जहां से लाया है।’
‘हुजूर, झूठ कहूं तो।।।।।’ रसीला ने अभी अपनी बात पूरी भी न को थी कि इंजीनियर बाबू चिल्लाए,‘अभी सच और झूठ का पता चल जाएगा। अब सारी बात हलवाई के सामने ही कहना।’
अब कोई रास्ता न बचा था। कशा बोला,‘माई बाप, ग़लती हो गई। इस बार माफ़ कर दें।’
इंजीनियर साहब की आंखों से आग बरसने लगा। उन्होंने निर्दयता से रसीला को ख़ूब पीटा फिर घसीटते हुए पुलिस थाने ले गए। सिपाही के हाथ में पांच का नोट रखते हुए बोले,‘मनवा लेना। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।’
दूसरे दिन मुकदमा शेख़ सलीमुद्दीन की कचहरी में पेश हुआ। रसीला ने तुरंत अपना अपराध स्वीकार कर लिया। उसने कोई कहानी न बनाया। चाहता ती कह सकता कि यह साजिश है। मैं नौकरी नहीं करना चाहता इसीलिए हलवाई से मिलकर मुझे फंसा रहे हैं, पर एक और अपराध करने का साहस वह न जुटा पाया। उसकी आंखें खुल गई थी। हाथ जोड़कर बोला,‘हुजूर, मेरा पहला अपराध है। इस बार माफ़ कर दीजिए। फिर ग़लती न होगी।’
शेख साहब न्यायप्रिय आदमी थे। उन्होंने रसीला को छह महीने को सज़ा सुना दी और रूमाल के मुंह पौछा। यह वही रुमाल था जिसमें एक दिन पहले किसी ने हज़ार रुपए बांधकर दिए थे।
फ़ैसला सुनकर रमजान की आंखों में ख़ून उतर आया।
सोचने लगा,‘यह दुनिया न्याय नगरी नहीं, अंधेर नगरी है। चोरी पकड़ी गई तो अपराध हो गया। असली अपराधी बड़ी-बड़ी कोठियों में बैठकर दोनों हाथों से धन बटोर रहे हैं। उन्हें कोई नहीं पकड़ता।’
रमजान घर पहुंचा। एक दासी ने पूछा,‘रसीला का क्या हुआ?’
‘छह महीने की क़ैद।’
‘अच्छा हुआ। वह इसी लायक था।’
रमजान ने ग़ुस्से से कहा,‘यह इंसाफ़ नहीं अंधेर है। सिर्फ़ एक अठन्नी की ही तो बात थी।’
रात के समय जब हज़ार, पांच सौ के चोर नरम गद्दों पर मीठी नींद सो रहे थे, अठन्नी का चोर जेल की तंग, अंधेरी कोठरी में पछता रहा था।