हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएं नहीं सह पा रहीं विक्षिप्त विकास का बोझ

हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएं नहीं सह पा रहीं विक्षिप्त विकास का बोझ

संजय सिंह, नई दिल्ली, अमृत विचार। हिमालय की कच्ची पर्वत श्रृंखला बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप के विरुद्ध रह-रह कर अपना रोष जता रही है। हाल के दिनों में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा लद्दाख में बादल फटने, भूस्खलन एवं बाढ़ की हुई भयानक घटनाएं इसका प्रमाण हैं। प्रकृति की इन चेतावनियों के बावजूद विकास …

संजय सिंह, नई दिल्ली, अमृत विचार। हिमालय की कच्ची पर्वत श्रृंखला बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप के विरुद्ध रह-रह कर अपना रोष जता रही है। हाल के दिनों में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा लद्दाख में बादल फटने, भूस्खलन एवं बाढ़ की हुई भयानक घटनाएं इसका प्रमाण हैं। प्रकृति की इन चेतावनियों के बावजूद विकास की धुन में मस्त सरकारें लगातार इनकी अनदेखी करती आई हैं। जबकि मौजूदा भाजपा नीति सरकारों ने कई बड़ी प्राकृतिक आपदाओं के बावजूद आर्थिक और धार्मिक इंफ्रास्ट्रक्चर विकास के नाम पर प्रकृति के विरुद्ध अभियान को और तेज कर दिया है।

पिछले सात सालों में केंद्र और राज्यों में विराजमान मौजूदा सरकारों ने विकास को मूलमंत्र मानते हुए सड़क, पुल, बांध, पनबिजली पावर प्लांट, सुरंगों और इमारतों के निर्माण के लिए प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दों के प्रति उपेक्षा का भाव दर्शाया है। इस क्रम में पर्यावरण प्रेमियों और विशेषज्ञों के सुझावों ही नहीं, बल्कि अदालतों आदेशों को भी मार्ग में रोड़ा मानकर उन्हें दरकिनार करने की प्रवृति दिखाई दी है। इसी का नतीजा है कि हिमालय के पहाड़ जगह-जगह से दरक रहे हैं। ग्लेशियर टूटने और बादल फटने की घटनाएं बढ़ने से अक्सर शांत और निर्मल रहने वाली नदियां भी अब अपना रौद्र रूप दिखाने लगी हैं।

पिछले कुछ वर्षों की केंद्र सरकार की योजनाओं पर गौर करें तो पता चलता है विकास के जुनून में किस तरह हिमालय को बाहर और भीतर से खोखला किया जा रहा है। फिर बात चाहे चार धाम सड़क परियोजना की हो अथवा कि उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा लद्दाख की सड़क, रेल एवं रक्षा परियोजनाओं की। सभी में नई सड़क बनाने, पुरानी सड़क को चौड़ा करने अथवा नई रेलवे लाइन बिछाने तथा लंबी-चौड़ी सुरंगों का निर्माण करने के लिए हरे-भरे पेड़ों से आच्छादित पहाड़ों को बारूदी विस्फोटों के जरिये विदीर्ण किया जा रहा है।

इस क्रम में सबसे ज्यादा क्षति उत्तराखंड को उठानी पड़ी है जहां सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं के साथ चारधाम (बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री) धार्मिक पर्यटन से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा देने के लिए हिमालय की भूभौतिक स्थितियों के साथ जबरदस्त छेड़छाड़ की गई है तथा नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को मोड़ने व अवरुद्ध करने का प्रयास किया गया है। इसका बड़े पैमाने पर पहला खामियाजा 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़ आपदा के रूप में देखने को मिला था। इस त्रासदी में लगभग तीन हजार लोग मारे गए थे। जबकि सैकड़ों लोगों को अपंगता अथवा गुमशुदगी का शिकार होना पड़ा था।

लेकिन उस हादसे से सरकारों ने कोई सबक नहीं लिया। उल्टे हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं की भंगुर प्रकृति के मद्देनजर असंतुलित विकास से भावी विनाश की चेतावनियों को धता बताते हुए विकास की मुहिम को और तेज करने की गलती की गई। जिसका नतीजा पिछले साल चमोली में ग्लेशियर टूटने और ऋषिगंगा के साथ एनटीपीसी की तपोवन विष्णुगड समेत कई छोटी बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के क्षतिग्रस्त होने एवं अस्सी से ज्यादा लोगों की मौत के रूप में सामने आया था।

उत्तराखंड की मनोरम देवभूमि भूकंप संवेदी भी है। गढ़वाल के अलावा यहां के कुमाऊँ क्षेत्र में भी विकास, पर्यटन और खनन गतिविधियों में हाल के वर्षों में बढ़ोतरी हुई है। परिणामस्वरूप बादल फटने तथा बाढ़ व भूस्खलन की घटनाओं में इजाफा हुआ है और अब ये अपेक्षाकृत जल्दी-जल्दी तथा भयानक रूप लेकर सामने आने लगी हैं।

उत्तराखंड की ही भांति हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा लद्दाख में भी सड़कों और रेलवे लाइनों के लिए अंधाधुंध सुरंगें बनाई जा रही हैं और पहाड़ों को जगह-जगह से छेदकर पोला और कमजोर किया जा रहा है। हिमाचल में ये काम राष्ट्रीय राजमार्ग विकास तथा हमीरपुर-लेह रेलवे लाइन परियोजनाओं के तहत हो रहा है। जिसमें जेड सुरंग और जोजिला पास जैसी बड़ी सुरंगों का निर्माण शामिल हैं। जबकि जम्मू व कश्मीर में उधमपुर-बारामूला राष्ट्रीय रेल परियोजना के तहत दर्जनों सुरंगों के साथ चेनाब पर विश्व के सबसे ऊंचे रेलवे पुल का निर्माण किया जा रहा है।

नेपाल स्थित इंटरनेशन सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के मुताबिक यदि विकास की अंधी दौड़ यूं ही जारी रही तो वायुमंडल के तापमान में सीमित वृद्धि के बावजूद 21वीं सदी के अंत तक हिमालय के हिंदुकुश क्षेत्र में 36 फीसदी ग्लेशियर नष्ट हो जाएंगे। जबकि कई दूसरे अध्ययनों में 21वीं सदी के बाद गंगोत्री और यमुनोत्री से जुड़े इलाकों में भी ग्लेशियरों के प्रायः खत्म होने की आशंका प्रकट की गई है।

पिछले बीस वर्षों में गंगा-यमुना से जुड़े ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार दो गुना हो गई है। विशेषज्ञों का कहना है कि यही हालात रहे तो भविष्य में चमोली से भी बड़ा हादसा भी हो सकता है। और यदि ऐसा हुआ तो उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल तक गंगा के मैदानी इलाको में बसे 50 करोड़ से ज्यादा लोग बाढ़ की चपेट में आ सकते हैं।

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