जब टर्की में क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के नाम पर एक शहर बसा
कितने अचरज की बात है कि आजादी के परवाने क्रांतिकारी शहीद राम प्रसाद बिस्मिल के नाम पर परदेश में एक शहर बसा दिया गया है। ये वही भारतीय क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल हैं जिन्होंने “काकोरी कांड” में शामिल होने के जुर्म में अपने तीन साथियों के साथ 19 दिसम्बर 1927 को शहादत दी थी। शहीद बिस्मिल …
कितने अचरज की बात है कि आजादी के परवाने क्रांतिकारी शहीद राम प्रसाद बिस्मिल के नाम पर परदेश में एक शहर बसा दिया गया है। ये वही भारतीय क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल हैं जिन्होंने “काकोरी कांड” में शामिल होने के जुर्म में अपने तीन साथियों के साथ 19 दिसम्बर 1927 को शहादत दी थी। शहीद बिस्मिल को सम्मान देने वाला टर्की का क्रांतिकारी मुस्तफा कमाल पाशा था।
कमाल पाशा ने अपने देश टर्की के लिए लड़ी लड़ाई और अपने क्रांतिकारी विचारों और कामों के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। पाशा ने एक कट्टर मुस्लिम राज्य में अनोखी क्रांति की थी। उन्होंने टर्की का शासन संभालने के बाद धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था और मुल्ला मौलवियों को देश की राजनीति से हाशिये पर ला पटका था। उन्होंने शिक्षण संस्थाए राज्य के अधीन कर दी थी, मदरसे गायब कर दिए गए।
संक्षेप में इतिहासकारों की नज़र में कमाल पाशा का अर्थ एक खालिस धर्म निरपेक्ष्य सत्ता से है जो हर तरीके के धार्मिक बंधनों से मुक्त हो। पाशा का निधन १९३८ में हुआ। पाशा के निधन पर कांग्रेसी नेताओं ने केंद्रीय एसम्ब्ली में शोक प्रस्ताव पास किया था।
२९ अक्टूबर १९२३ को पाशा ने सुलतान अब्दुल वहीद खान को सत्ता से बेदखल कर अपने देश में गणतंत्र की स्थापना की थी। यूरोपीय देश ‘टर्की’ के क्रांतिकारी मुस्तफा कमाल पाशा भारतीय क्रांतिकारी बिस्मिल की शहादत (1927) से अविभूत थे। १९३६ में भारी संख्या में तुर्की लोग कोन्या से भागकर अपने देश में आये। पाशा ने इन लोगों के लिए एक नया जिला बनाया और इसका नाम रखा ” बिस्मिल’।
समुद्र तल से ५५० फीट ऊपर बसा यह शहर आज अपने खूबसूरत पार्कों के लिए मशहूर है। अपने देश की आजादी के लिए क्रांतिकारियों द्वारा दिए गए बलिदान के जानकार भारतीय पर्यटक जब भी टर्की के बिस्मिल शहर जाते है और जगह जगह अपने लाडले क्रन्तिकारी ‘बिस्मिल’ के नाम की पट्टिका देखते हैं तो गौरवान्वित हुए बिना नहीं रहते और कमाल पाशा के प्रति श्रद्धानत हो जाते हैं।
मजेदार बात यह है कि बिस्मिल का क्रांति और कलम का गहरा नाता था। वे कवि, शायर और लेखक थे। उन्होंने अपने ११ साल के क्रन्तिकारी जीवन में करीब एक दर्जन पुस्तकें लिखीं जिन्हे उनके जीवन में ही अंग्रेजी हुकूमत ने जब्त कर लीं। बिस्मिल अपने जीवन में दुनिया भर में साम्राजयवाद के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाइयों और तमाम सैनानियों के नाम और उनके कामों से भलीभांति वाकिफ थे। वे ‘राम ‘और ‘अज्ञात ‘ नाम से उस जमाने की पत्रिकाओं में लिखा करते थे। फांसी घर में बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा लिखी थी।
इस पुस्तक में बिस्मिल ने कमाल पाशा की बहादुरी का जिक्र किया है। उससे पूर्व बिस्मिल तुर्की में हुए बदलाव के चलते मुस्तफा से प्रभावित थे और उन्होंने 1922 में ‘प्रभा’ पत्रिका में ‘विजयी कमाल पाशा’ नाम से एक लेख भी लिखा था। जब अगस्त 1922 में वहां विजय दिवस मनाया गया था। जेल में लिखी बिस्मिल की ग़ज़ल ” मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या ,दिल की बर्बादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या ” आम लोगों की जुबान पर आज भी चढ़ी है।
1927 में बिस्मिल, अशफाक व रोशन सिंह को फांसी के बाद मुस्तफा कमाल पाशा ने भारतीय अमर सपूतों का अपने संस्मरणों में जिक्र भी किया और 1936 में अपने जज्बातों को अभिव्यक्ति दी। टर्की के “दियारबाकिर” राज्य में ‘बिस्मिल’ शहर बसाकर। सच मायने में कमाल पाशा ने ऐसा करके एक क्रांतिकारी ने दूसरे क्रांतिकारी को उसकी शहादत व बहादुरी को सलाम किया है । ‘दियारबाकिर’ अरबी का शब्द है जिसका मतलब होता है ‘विद्रोहियों का इलाका’।
बिस्मिल की बहादुरी के कायल सरदार भगत सिंह भी थे। इन वीरों की फांसी से पूर्व मई 1927 में भगत सिंह ने ” काकोरी के वीरों से परिचय ” शीर्षक से एक लेख लिखा था। भगत सिंह ने लिखा ” बिस्मिल जैसा निर्भीक, वीर, ऐसा सुन्दर जवान, ऐसा योग्य व उच्च कोटि का लेखक और योद्धा मिलना मुश्किल है।” कोरोना के बाद भारतीय पर्यटक जब भी टर्की जायेंगे, बिस्मिल शहर भी जरूर जायेंगे और वहां याद करेंगे इस आजादी के परवाने को। दरअसल गुजरे जमाने की हकीकत को बयां करने का लुफ्त ही अलग है। जब उस जमाने की खुश्बू के कुछ अंश हमारे इर्द-गिर्द बिखरे पड़े हों।