सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ दायर याचिका खारिज

नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के राष्ट्रीय राजधानी में स्थित सरकारी आवास पर 14-15 मार्च की रात आगजनी की घटना के दौरान कथित रूप से बेहिसाब धन मिलने के मामले में उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने के लिए पुलिस को निर्देश देने की गुहार वाली याचिका पर विचार करने से शुक्रवार को इनकार कर दिया। न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने यह कहते हुए याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया कि 'इन-हाउस' जांच पूरी हो जाने बाद सभी रास्ते खुले हैं।
पीठ ने कहा कि चूंकि ‘इन-हाउस’ जांच चल रही है, इसलिए इस स्तर पर इस रिट याचिका पर विचार करना उचित नहीं होगा। अगर जरूरत पड़ी तो देश के मुख्य न्यायाधीश प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं। गौरतलब है कि शीर्ष अदालत ने 22 मार्च को इस मामले की जांच के लिए उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की एक समिति गठित की थी, जो अपना काम कर रही है। पीठ ने याचिकाकर्ता मैथ्यूज जे नेदुम्परा से पूछा, “हमने अर्जी देखी है कि हमें इस स्तर पर इस पर क्यों विचार करना चाहिए।”
याचिकाकर्ता ने कहा कि जांच देश का काम नहीं है और आम जनता पूछता रहता है कि 14 मार्च को कोई प्राथमिकता क्यों दर्ज नहीं की गई। आग के दौरान कथित तौर पर मिले रुपये क्यों जब्त नहीं किए गए और दिल्ली फायर चीफ ने क्यों कहा कि कोई रुपया बरामद नहीं हुआ। पीठ ने कहा कि इस मुद्दे पर प्रक्रिया तंत्र निर्धारित करने वाले दो या तीन फैसले पहले ही आ चुके हैं। पीठ ने आगे कहा, “इसलिए अगर आप आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते हैं तो किसी को 'कमांड मैन' को शिक्षित करना होगा।”
इस पर याचिकाकर्ता ने कहा कि जब फैसले और कानून के बीच टकराव होता है तो कानून को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि 'वीरस्वामी का फैसला' दंड प्रक्रिया संहिता के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि इस नजरिए से तीन सदस्यीय न्यायाधीशों की समिति (22 मार्च को गठित) का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। हालांकि, अदालत तमाम दलीलें सुनने के बाद याचिका पर फिलहाल विचार करने से इनकार कर दिया। यह जनहित याचिका तीन वकीलों - नेदुम्परा, हेमाली सुरेश कुर्ने, राजेश विष्णु आद्रेकर और चार्टर्ड अकाउंटेंट मनशा निमेश मेहता ने संयुक्त रूप से दायर की थी। इस याचिका में न्यायमूर्ति वर्मा, केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर और न्यायाधीशों की समिति के सदस्य को मामले में पक्षकार बनाया गया।
याचिका में कहा गया है कि के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय में की गई टिप्पणियां बिना सोचे-समझे की गई है। इस फैसले में कहा गया है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की पूर्व अनुमति के बिना किसी उच्च न्यायालय या शीर्ष न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं किया जाएगा।
याचिका में कहा गया है कि 22 मार्च को भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा गठित तीन सदस्यीय समिति को इस घटना की जांच करने का कोई अधिकार नहीं है। याचिका में यह भी कहा गया है कि उस समिति को इस तरह की जांच करने की शक्ति देने का निर्णय शुरू से ही निरर्थक है, क्योंकि कॉलेजियम ऐसा आदेश देने का अधिकार खुद को नहीं दे सकता, जबकि संसद या संविधान ने ऐसा कोई अधिकार नहीं दिया है।
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