प्रयागराज : न्याय प्रणाली प्रतिशोधात्मक नहीं बल्कि सुधारात्मक होनी चाहिए
अमृत विचार, प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नाबालिग के साथ दुष्कर्म के मामले में आजीवन कारावास की सजा को संशोधित करते हुए कहा कि न्याय प्रतिशोधात्मक नहीं बल्कि सुधारात्मक दृष्टिकोण के साथ होना चाहिए। अपराध की गंभीर प्रकृति के अनुसार दंड को संतुलित करते हुए अपराधी के पुनर्वास की संभावना होने पर जोर दिया। कोर्ट ने दंड के आनुपातिकता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि अत्यधिक कठोर दंड न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कमजोर कर सकता है।
न्याय प्रणाली में जनता के विश्वास को बनाए रखने के लिए दंड में अनावश्यक उदारता या कठोरता से बचा जाना चाहिए। उक्त आदेश न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी की खंडपीठ ने दुर्वेश उर्फ पप्पू की आपराधिक अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए पारित किया। अपीलकर्ता के विरुद्ध आईपीसी की धारा 376 और पोक्सो अधिनियम की धाराओं के तहत पुलिस स्टेशन किसनी, मैनपुरी में मुकदमा पंजीकृत किया गया था। कोर्ट ने मेडिकल रिपोर्ट तथा गवाहों एवं साक्ष्यों पर विचार करने के पश्चात दुष्कर्म के आरोपी अभियुक्त की दोषसिद्धि बरकरार रखा, जबकि ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई आजीवन कारावास की सजा को अत्यधिक कठोर तथा न्याय के सुधारात्मक सिद्धांतों के विपरीत मानते हुए संशोधित कर उसे 14 साल के कठोर कारावास में बदल दिया।
हालांकि जुर्माना राशि को 50 हजार से बढ़ाकर एक लाख रुपये कर दिया, जो पीड़िता को देय होगा। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट निर्देश दिया कि जुर्माना अदा न करने की स्थिति में अपीलकर्ता को एक साल का अतिरिक्त कारावास भुगतना पड़ेगा। कोर्ट ने यह पाया कि उक्त संशोधित सजा न्याय के उद्देश्यों को पर्याप्त रूप से पूरा करेगी, जो सुधार की संभावना के साथ सजा की आवश्यकता को संतुलित करती है। यद्यपि अपराध जघन्य है, लेकिन आपराधिक न्याय प्रणाली को केवल दंडित करने के बजाय पुनर्वास के लक्ष्य को ध्यान में रखना चाहिए।
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