MP चुनाव: झाबुआ में ‘खाटला बैठकों’ और ‘हाट जुलूसों’ से होकर गुजरता है विधानसभा तक पहुंचने का रास्ता
झाबुआ। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान शहरी इलाकों में चुनाव प्रचार के लिए जहां सोशल मीडिया पर राजनीतिक दलों का जोर बढ़ता जा रहा है, वहीं आदिवासियों के लिए आरक्षित झाबुआ निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवारों के जनसंपर्क अभियान पर पारंपरिक छाप बरकरार है।
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झाबुआ के दूरस्थ क्षेत्रों की छितराई आबादी में रहने वाले मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने के लिए उम्मीदवार की ओर से ‘खाटला बैठकों’ और हाट बाजारों में निकाले जाने वाले जुलूसों का जमकर सहारा लिया जा रहा है। भील आदिवासियों के गढ़ झाबुआ की स्थानीय बोली में खाट यानी चारपाई को ‘खाटला’ कहा जाता है।
खाट पर बैठकर मतदाताओं के साथ किए जाने वाले सीधे संवाद को ‘खाटला बैठकों’ के नाम से जाना जाता है और 17 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनावों का प्रचार चरम पर पहुंचने पर झाबुआ में ऐसी बैठकों की तादाद बढ़ गई है। झाबुआ के ग्रामीण क्षेत्र में शाम ढलने के बाद शुरू हुई एक हालिया ‘खाटला बैठक’ के दौरान कांग्रेस प्रत्याशी विक्रांत भूरिया ने से कहा, ‘‘खाटला बैठक आदिवासियों की संस्कृति से जुड़ी है।
यह केवल चुनावी दौर की बात नहीं है। लोग आम दिनों में भी चारपाई पर बैठकर आपसी चर्चा के जरिये तमाम मसले सुलझाते हैं।’’ उन्होंने कहा कि हाट बाजार भी झाबुआ के आदिवासी क्षेत्रों में सामाजिक मेल-जोल का बड़ा जरिया है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उम्मीदवार भानु भूरिया ‘खाटला बैठकों’ के साथ ही साप्ताहिक हाट बाजारों में जुलूस निकालकर मतदाताओं तक पहुंच रहे हैं।
बोरी गांव के हाट बाजार में निकाले गए ऐसे ही जुलूस के दौरान उन्होंने कहा, ‘‘शहरी क्षेत्रों में चुनावों के दौरान सोशल मीडिया छाया होगा, पर हमारे यहां खाटला बैठकों का अलग रंग है। खाटला (चारपाई) हमारी शान, मान और अभिमान है। आदिवासी क्षेत्रों में किसी व्यक्ति को खाट पर बैठाया जाना सम्मान का सूचक है। खाट पर बैठकर बड़ी आत्मीयता से बात होती है।’’
जानकारों ने बताया कि झाबुआ में जारी ‘खाटला बैठकें’ सियासी दलों की चुनावी रणनीति का अहम हिस्सा हैं और भाजपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों में जबरदस्त होड़ लगी है कि सबसे पहले और सबसे ज्यादा ‘खाटला बैठकें’ कौन करता है।
वैसे झाबुआ में इन बैठकों की चुनावी कवायद के पीछे खास भौगोलिक वजह भी है। इस क्षेत्र में आदिवासियों की बड़ी आबादी दुर्गम जगहों पर स्थित ‘‘फलियों’’ (छितरी हुई आबादी जिनमें घाटियों पर घर बने होते हैं) में रहती है, जहां बड़ी सभाओं का आयोजन व्यावहारिक तौर पर मुमकिन नहीं हो पाता।
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