पशु क्रूरता के मूल में मनुष्यों में जानवरों के प्रति घटती समानुभूति
डॉ. स्कन्द शुक्ल, वरिष्ठ चिकित्सक, लखनऊ “कम-से-कम जानवरों के प्रति ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। जब लोग इंसानों के प्रति जघन्य क्रियाओं से स्वयं को नहीं रोकते, तो वे पशुओं के प्रति क्या रोकेंगे? किसी जानवर के साथ कोई ऐसी हरक़त कैसे कर सकता है।” इस तरह के विचार लाना उल्टी तरतीब बिठाना है। जानवरों …
- डॉ. स्कन्द शुक्ल, वरिष्ठ चिकित्सक, लखनऊ
“कम-से-कम जानवरों के प्रति ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। जब लोग इंसानों के प्रति जघन्य क्रियाओं से स्वयं को नहीं रोकते, तो वे पशुओं के प्रति क्या रोकेंगे? किसी जानवर के साथ कोई ऐसी हरक़त कैसे कर सकता है।” इस तरह के विचार लाना उल्टी तरतीब बिठाना है। जानवरों के प्रति दुर्व्यवहार पहले शुरू होता है, इंसानों के प्रति उसे बाद में बरता जाता है। जो पहले जीव-जंतुओं को बचपन में सताते हैं, उन्हीं में से अनेक आगे जाकर तरह-तरह के मनोरोगी अपराधी बनते हैं। जीवों के प्रति हिंसा मानवीय हिंसा की अनुगामिनी नहीं पूर्वगामिनी है।
अंग्रेज चित्रकार विलियम हॉगर्थ अपनी प्रसिद्ध एनग्रेविंग शृंखला में टॉम नीरो नामक काल्पनिक व्यक्ति के जीवन की चार घटनाएं चित्रित करते हैं। पहली में टॉम एक कुत्ते पर क्रूरता प्रदर्शित कर रहा है, दूसरे में वह एक घोड़े को पीट रहा है। तीसरे में उसका अपराधी व्यक्तित्व खुलकर सामने आ गया है: वह लूट, यौन अपराध और हत्या करने लगा है। चौथा एवं अंतिम चित्र उसकी परिणति है, जहां दंड के तौर पर उसे फांसी दी गयी है और उसके बाद सर्जन उसके शरीर को काट-पीटकर उसका अध्ययन के लिए प्रयोग कर रहे हैं।
पशुओं के प्रति बढ़ती क्रूरता के मनुष्यों के लिए कई मायने हैं। अनेक कारणों और प्रकारों से पशुओं के प्रति क्रूरता की जाती रही है। किंतु वर्तमान समय में यह क्रूरता नित्य नवीन रूपों में अधिकाधिक प्रकाश में आ रही है। जानवरों के प्रति बदसलूकी केवल जानवरों तक ही सीमित समझना नादानी है: बहुधा इन क्रूर घटनाओं से भविष्य के ढेरों अपराधों व अपराधियों को भविष्य में चिह्नित करने में मदद मिलती है। बाल व वयस्क यौन-अपराध , घरेलू मारपीट व दुर्व्यवहार, बलात्कार, नशावृत्ति, जुआ व हत्या तक के मामलों को हम पीछे ट्रेस करते जाते हैं, तब अनेक पशु-क्रूरता की घटनाएं प्राथमिक तौर पर मिलती हैं। जो आज किसी पिल्ले को जीवित जला रहा है, वह कल किसी बालिका के साथ बलात्कार कर सकता है। जो आज अवन में खरगोश को जीवित भून रहा है, वह कल किसी मनुष्य की हत्या कर सकता है। जिसने आज किसी गर्भिणी हथिनी को धोखे से पटाखों से भरा अनानास खिलाया है, उसने अपराधी के तौर पर अपराध-जगत में अपनी दस्तक दे दी है।
पशु-क्रूरता के मूल में मनुष्यों में जानवरों के प्रति घटती समानुभूति है: जिससे हम समानुभूत नहीं होते, उसका कष्ट हमें प्रभावित भी नहीं किया करता। समानुभव या समानुभूति के भी दो पक्ष होते हैं: बौद्धिक व भावनात्मक। बौद्धिक तौर पर हम किसी की जगह स्वयं को रखकर देख सकते हैं। यह तरीक़ा दैनिक कामकाज के समय प्रयोग में लाया जा सकता है, जिससे कुशलता सिद्ध होती है। लेकिन भावनात्मक समानुभूति को महसूस करते समय हम दूसरे के कष्ट को अनुभूत करते हैं; उस पर क्या बीत रही होती है, इसे स्वयं पर लेकर अनुभूत करने की चेष्टा करते हैं। यह भावनात्मक समानुभूति ही हमें पशुओं-पक्षियों-पेड़-पौधों के क़रीब ले जाती है, इसी के कारण हम उनसे गहरा भावुक जुड़ाव सीखते हैं। बीते काफ़ी समय से हमारे बच्चे प्रकृति से दूर हुए हैं। जानवरों और चिड़ियों की जगह गैजेट्स और उपकरणों ने ले ली है। परिवार दरक रहे हैं, ढेरों बच्चों को पारिवारिक कलह-मारपीट-नेग्लेक्ट अथवा तलाक जैसी दुर्व्यवस्थाओं का दुष्प्रभाव झेलना पड़ रहा है। रिश्ते कम से कम सजीव और अधिक से अधिक फेनिल होते जा रहे हैं और यांत्रिकता में वृद्धि होती जा रही है। ऐसे में तरह-तरह के मनोविकारों को पनपने का अवसर मिल रहा है। इस तरह की विकृतियों को लिये बच्चे अपराध का प्रथम प्रयोग किसी पशु पर ही करते हैं। मनुष्यों की बारी बाद में आएगी। क्रूरता को जब कौतूहल का साथ मिल जाता है, तब वह विकृत घटनाओं को एक के बाद एक जन्म देती है। बुरे संबंधों के दौर में पल रहे यंत्रजीवी बच्चे पशुओं पर क्रूरता का अभ्यास करेंगे, ताकि वे आगे अपने नवीन मानव-संबंधों पर उनकी रक्तरंजित छाप छोड़ सकें।