बरेली में नवाब खान बहादुर खान ने थामा था 1857 की क्रांति का परचम

बरेली, अमृत विचार। भारत अपनी आजादी की 76वीं वर्षगांठ मना रहा है। इस स्वतंत्रता को पाने के लिए जिन लोगों ने अपनी जान की बाजी लगाई थी उनमें एक नाम नवाब खान बहादुर खान का भी शामिल है। 24 मार्च 1860 को जंग-ए-आजादी का परचम बुलंद करने वाले 1857 की क्रांति के नायक खान बहादुर …
बरेली, अमृत विचार। भारत अपनी आजादी की 76वीं वर्षगांठ मना रहा है। इस स्वतंत्रता को पाने के लिए जिन लोगों ने अपनी जान की बाजी लगाई थी उनमें एक नाम नवाब खान बहादुर खान का भी शामिल है। 24 मार्च 1860 को जंग-ए-आजादी का परचम बुलंद करने वाले 1857 की क्रांति के नायक खान बहादुर खान को किला छावनी से कोतवाली तक पैदल लाकर फांसी दी गई थी। यह सजा उन्हें ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत करने के लिए दी गई थी, मगर इतिहास गवाह है कि तख्त-ए-दार पर खड़े होने के बावजूद नवाब खान बहादुर खान ने अंग्रेजों को ललकारा था। फांसी के बाद उन्हें पुरानी जिला जेल के अहाते में ही बेड़ियों समेत दफन किया गया था।
1791 में जन्मे खान बहादुर खान रूहेला सरदार हाफिज रहमत खान के वंशज थे। भूड़ मोहल्लस इलाके में इनके परिवार का निवास स्थान नवाब के ठेरे के नाम से मशहूर था। इनका विवाह शाहजहांपुर के मीरनपुर कटरा की मुमताज से हुआ था। 1857 की क्रांति के समय खान बहादुर खान ब्रिटिश शासन के न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद से अवकाश प्राप्त कर चुके थे जिसके लिए उन्हें सरकार से पेंशन भी मिलती थी। उन्हें रूहेला सरदार हाफिज रहमत खान का वंशज होने की पेंशन भी मिलती थी।
खान बहादुर खां दूसरे क्रांतिकारी नेताओं के साथ मिलकर क्रांति का ताना-बाना बुनने लगे थे। मस्जिद नौमहला या फिर भूड़ स्थित उनके घर में बरेली कॉलेज के अध्यापक कुतुब शाह, मौलवी महमद हसन, भूरेखां, मदार अली खां, नियाज मोहम्मद आदि उनके साथ जुड़े हुए थे। उनके घनिष्ट मित्र शोभाराम ने इस आंदोलन में उनका भरपूर सहयोग किया था। मेरठ में 10 मई 1857 को क्रांति हुई। इसका समाचार बरेली में 14 मई को पहुंचा था।
इसके बाद तैयारियां शुरू हुईं थीं। 31 मई को सूबेदार बख्त खां के नेतृत्व में विद्रोह की शुरुआत हुई। बरेली के तत्कालीन मजिस्ट्रेट, सिविल सर्जन, जेल अधीक्षक और बरेली कॉलेज के प्राचार्य सीबक मार दिए गए थे। शाम 5 बजे तक बरेली पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया था। पहली जून को विजय जुलूस निकाला गया था। कोतवाली तक आकर एक ऊंचे चबूतरे पर खान बहादुर खां को बैठाकर उनकी ताजपोशी की गई और जनता की उपस्थिति में उन्हें बरेली का नवाब घोषित कर दिया गया। बख्त खां ने आंदोलनकारी सेनाओं का सेनापतित्व स्वीकार कर लिया। अब बरेली आजाद थी। खान बहादुर खां ने शोभाराम को अपना दीवान बनाया था। वह शाहजहांपुर, बदायूं, पीलीभीत पर भी अपना अधिकार कर चुके थे।
11 महीने तक रखा रूहेलखंड को स्वतंत्र
नवाब खान बहादुर खान ने रूहेलखंड को करीब 11 महीने तक आजाद रखा मगर 6 जून 1858 को नकटिया नदी पर नवाब खान बहादुर खान की सेना अंग्रेजी फौज से पराजित हो गई। शरण लेने के लिए उन्हें तराई के जंगलों तक में छिपना पड़ा। नेपाल के बुटवल नामक स्थान से उनकी गिरफ्तारी हुई। 24 मार्च 1960 को कुतुबखाना में कोतवाली के सामने उन्हे सार्वजनिक तौर पर फांसी दे दी गई थी।
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