जब भी मैं लौटता हूं घर…

हर बार की तरह लौटा हूं घर और घर लौट आया है मुझ में वह घर जो मेरा है, मेरे नहीं हैं इसकी दीवारों पर लिखे अनगिनत किस्से, सपने मेरे अपने हैं पर यह अलग बात है जो कोई मायने नहीं रखते जब भी मैं लौटता हूं घर, मेरा घर दौड़ कर लिपट जाता है …
हर बार की तरह लौटा हूं घर
और घर लौट आया है मुझ में
वह घर जो मेरा है, मेरे नहीं हैं
इसकी दीवारों पर लिखे अनगिनत किस्से, सपने
मेरे अपने हैं पर यह अलग बात है जो कोई मायने नहीं रखते
जब भी मैं लौटता हूं घर, मेरा घर दौड़ कर लिपट जाता है मुझसे
ढूंढता है मेरी आंखों में अपने लिए सहानुभूति
बताता है अपनी बदहाली के किस्से
किस तरह चुपके से अपनों ने ही कुतर दिया घरेलू रिश्तों की बुनियाद
किस तरह धीरे धीरे मर गया घर का चरित्र आज
वह मुझे पढ़वाता है, तनहाइयों में दीवारों पर लिखे कुछ शब्द
बताता है कि कैसे-कैसे उलझनों में वह उलझ गया
खामोश खड़ी दीवारें निःशब्द कह जाती हैं अपनी व्यथा कथा
बीमार हवाएं रिश्तों में फूटते दुर्गन्ध का बयान करती हैं
खुद को संभालने की असफल कोशिश करता मैं, सहेजता हूं
ठंड़ी होती दिनचर्या में जीवन की गर्माहट, मन का हरापन
भोलापन दिल का, अक्खड़पन, जुझारूपन,
एक शाश्वत प्रश्न खड़ा होता है क्यों? किसके लिए?
पर वह मेरे भीतर जो एक मन और है, जो नहीं जानता दैन्य
हार मानता नहीं, कहता है डटे रहो मोर्चे पर
लड़ना है अपने हिस्से का महाभारत अकेले ही
इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है हमारे पास
- सरोज मिश्रा