“मैती आंदोलन”: पर्यावरण संरक्षण की एक ऐसी परंपरा, जिसमें वर-वधू विदाई से पहले करते हैं ये पवित्र कार्य…

अमृत विचार। चिपको आंदोलन के बाद पर्यावरण संरक्षण की दिशा में किए गए बड़े आंदोलनों में से एक है “मैती आंदोलन”। मैती यानि की मायका… आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1994 में चमोली जिले के राजकीय इंटर कॉलेज ग्वालदम के जीव विज्ञान के प्रवक्ता रहे कल्याण सिंह रावत ने की थी। इस आंदोलन के तहत जब …
अमृत विचार। चिपको आंदोलन के बाद पर्यावरण संरक्षण की दिशा में किए गए बड़े आंदोलनों में से एक है “मैती आंदोलन”। मैती यानि की मायका… आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1994 में चमोली जिले के राजकीय इंटर कॉलेज ग्वालदम के जीव विज्ञान के प्रवक्ता रहे कल्याण सिंह रावत ने की थी। इस आंदोलन के तहत जब भी किसी बेटी की शादी होती तो विदाई से पहले वर-वधू को एक पौधा रोपने के लिए दिया जाता है। दुल्हन इसे पानी से सींचती है। फिर ब्राह्मण द्वारा इस नव दंपत्ति को आशीर्वाद दिया जाता है। बाद में बेटी के मायके वाले पौधे का संरक्षण करने का संकल्प लेते हैं और फिर बेटी अपने मायके में गुजारी यादों के साथ विदाई लेती है।
इस भावनात्मक परंपरा के साथ शुरू किया गया मैती आंदोलन हालांकि अब पहाड़ों पर पलायन के कारण उतने वृहद स्वरूप में नहीं रहा, लेकिन फिर भी यह अभियान बरकरार जरूर है। गढ़वाल-कुमाऊं क्षेत्र में शादी से पहले किया जाने वाला यह कार्य बेहद पवित्र माना जाता है।
मूल रूप से चमोली जिले के बैनोली गांव निवासी कल्याण सिंह रावत सिंह रावत को पेड़ों और जंगलों के प्रति लगाव विरासत में मिला। उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव के प्राथमिक स्कूल बैनोली (नौटी) में हुई तो 8वीं तक की शिक्षा कल्जीखाल और 10वीं, 12 वीं की शिक्षा कर्णप्रयाग में पूरी हुई। स्नातक और स्नातकोत्तर की शिक्षा राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय गोपेश्वर से ग्रहण की।
1982 में शादी के दूसरे ही दिन उन्होंने अपनी पत्नी मंजू रावत द्वारा दो पपीते के पौधो लगवाए। जिसने कुछ साल बाद फल देने शुरू कर दिए। इन्हें देखकर उनके मन में ‘मैती’ का विचार आया, लेकिन वह अपने विचार को आगे नहीं बढ़ा पाए। फिर 1987 में उत्तरकाशी में भयकंर सूखा पड़ा। इससे उन्हें पर्यावरण क्षति का एहसास हुआ। धीरे-धीरे उनकी मन भूमि में आंदोलन के बीज पड़ने लगे थे।

एक दिन कल्याण ने विद्यार्थियों के शैक्षिक भ्रमण के दौरान बेदनी बुग्याल में जब महिलाओं को वनों की देखभाल करते हुए देखा तो उन्हें लगा कि महिलाएं पर्यावरण संरक्षण की दिशा में बेहतर ढ़ंग से काम कर सकती हैं। उस विचार ने मैती आंदोलन के बीज को अंकुरित करने में मदद की।
चिपको आंदोलन में भी रहे सक्रिय
कल्याण अपने कॉलेज के दिनों से ही पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। जब चिपको आंदोलन अपने चरम पर था, तब 26 मार्च 1974 को वह तेज बारिश के बावजूद 150 लड़कों के साथ ट्रेक में बैठकर जोशीमठ आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए पहुंचे थे। चिपको आंदोलन ने प्रेरित होकर उन्होंने प्रकृति की रक्षा करने की ठानी।
पद्मश्री पुरस्कार से हुए सम्मानित
मैती आंदोलन अन्य देशों में भी अपनी पहचान बना चुका है। कई देशों के साथ ही हिमाचल प्रदेश ने भी इस परंपरा को अपनाया है। 67 वर्षीय कल्याण सिंह रावत अब तक पांच लाख से भी ज्यादा पौधे लगा चुके हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उनके इस आंदोलन को सराहा था। उन्हें मैती आंदोलन के लिए उन्हें वर्ष 2020 में पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है।